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________________ [ ७४ ] अर्थात् उपशामना दो प्रकार की होती है-१. जिन कर्मो की उपशामना यथाप्रवृत्त-अपूर्व-अनिवृत्तिकरण से होती है, उसे करणोपशामना कहते हैं । २. इसके विपरीत अर्थात् यथाप्रवृत्त-अपूर्व-अनिवृत्ति करणों के बिना-नदी, पर्वतादि के पाषाण जिस प्रकार बिना किसी करण विशेष से चिकने, गोल आकार धारण कर लेते हैं, उसी प्रकार बिना करण विशेष के वेदन के अनुभवादि से होनेवाली कर्मों की उपशामना को अकरणोपशामना कहते है । उपशामना के दो प्रकार होते हैं--यथादेशोपशामना तथा सर्वोपशामना । अकरणोपशामना देशोपशामना रूप होती है तथा करणोपशामना देशोपशामना व सर्वोपशामना-दोनों प्रकार की होती है। कर्म प्रकृति में करण की प्राप्ति के पूर्व भी मिथ्यात्वी के तेजो पद्म शुद्ध . लेश्या का उल्लेख मिलता है। करणकालात् पूर्वमपि xxx तिसृणां विशुद्धानां लेश्यानामन्यतमस्या लेश्यायां वर्तमानो, जघन्येन तेजोलेश्यायां, मध्यमपरिणामेन पनिलेश्यायां, उत्कृष्टपरिणामेन शुक्ललेश्यायांxxxi -कर्मप्रकृति भाग ५, गा ४। टीका यद्यपि अन्तरकरण की प्राप्ति के विषय में भी विभिन्न आचार्यों का विभिन्न मत है, परन्तु अन्तरकरण से औपशमिक सम्यक्त्व को ही प्राप्ति होती है-ऐसी जैन परम्परा से मान्यता है। जैसे वन में दावानल ईधन के दग्ध हो जाने पर बुझ जाता है वैसे ही मिथ्यात्व का दावानल अन्तकरण में सामग्री के अभाव के कारण शान्त हो जाता है। मिथ्यात्वी शुभ अध्यवसाय-शुभपरिणामशुभलेश्या से तथा मोहनीयकर्म के उपशम से, ईहा-अपोह-मग्गण-गवेसण करते हुए अन्तकरण में औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं । जैन सिद्धान्त दीपिका में युगप्रधान आचार्य तुलसी ने कहा है xxx। तद वेद्याभावश्चान्तरकरणम्। (उपसमसम्यक्त्वात् प्राग्वेद्योत्तरवेद्यमिथ्यात्वपुजयोरन्तरकारित्वात् अन्तरकरणम् )। तत् प्रथमे क्षणे आन्तमहूतिकमौपशमिकसम्यक्त्वं भवति । -जैन० प्रकाश ५८ टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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