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[ ५] अर्थात जिस स्थान पर मिथ्यात्व दलिकों के प्रदेश वेदन का व विपाकोदय -दोनों का अभाव होता है-पूर्ण उपसम होता है, उसे अन्तरकरण कहा जाता है । उस अन्सरकरण के पहले क्षण में अन्तर्मुहूर्त स्थिति वाले ओपमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। कर्म प्रकृति की मान्यतानुसार अनिवृत्तिकरण में प्रवेश होने के बाद जब उसमें प्रवेश होने का संख्यात भाग व्यतीत हो जाता है तथा संख्यात भाग अवशेष रहता है तब मिथ्यात्वो अन्तरकरण को प्राप्त करते हैं-जैसा कि शिवशर्माचार्य ने कहा हैसंखिज्जइमे से से भिन्न मुहूत्त अहो मुच्चा।
___-कर्म प्रकृति ॥१७ टीका-'संखिज्जेत्यादि' अनिवृत्तिकरणद्धायाः संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु एकस्मिश्च भागे संख्येयतमे शेषे तिष्ठति अन्तमुहूर्त मात्रमधो मुक्त्वा मिथ्यात्वस्यान्तरकरणं करोति ।
योगशास्त्र वृत्ति में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
प्रन्थिभेदस्तु संप्राप्ता, रागादि प्रेरिता पुनः उत्कृष्ट बन्धयोग्यास्यु. श्चतुर्गति जुषोऽपि च ॥६॥ ____ अर्थात् प्रन्थि-भेदन का कार्य दुरूह है। अस्थि-भेदन से संप्राप्त हुए कतिपय मिथ्यात्वी राग-द्वष से पुनः प्रेरित होकर पुनः मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट बन्ध चक्र में उलझ जाते हैं। अतः मिथ्यात्वी बड़ी सावधानता से शुभ परिणामादि से राग-द्वेष को प्रन्थि के तोड़ने का प्रयास करें।
जैन परम्परागत आचार्यों को यह मानता रही है कि मिथ्यात्वी शुभ परिणाम-शुभ अध्यवसाय-शुमलेश्या के द्वारा आध्यात्मिक विकास करते हुएअनिवृत्तिकरण में उदीरणा के माध्यम से कर्म को भोग कर बहुत शोघ्र हो नष्ट कर देते हैं (अल्पस्थितिक भाग ) और उदय आने वाले कर्मो को उपशम कर दिया जाता है । (दीर्घस्थितिक भाग) अस्तु, अल्लास्थितिक भाग ओर दोर्घस्थितिक आग में जो अन्सर पड़ता है, उसे 'अन्तकरण' कहते हैं।'
१ - लोकप्रकाश सर्ग
गा ६२७ से १३०
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