________________
[ ७६ ] नांगी टीकाकार अमयदेवसूरि ने कहा है
इह च गंभीरभवोदधिमध्यविपरिवर्ती जन्तुरनाभोगनिर्वत्तितेन गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेन यथाप्रवृत्तिकरणेन संपादितान्तःसागरोपमकोटाकोटीस्थितिकस्य मिथ्यात्ववेदनीयस्य कर्मणः स्थितेरन्तमुहूर्त. मुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्यापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञिताभ्यां विशुद्धिविशेषाभ्यामन्समुहूर्त कालप्रमाणमन्तरकरणं करोति, तस्मिन् कृते तस्य कर्मणः स्थितिद्वयं भवति, अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमस्थितिरन्तमुहूर्त मात्रा, तस्मादेवोपरितनी शेषा, तत्र प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिकवेदनादसो मिथ्यावृष्टिः, अन्तमुहूर्तेन तु तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवौपशमिकसम्यक्त्वमाप्नोति मिथ्यात्वदलिकवेदनाऽभावात् , यथा हि दवानलः पूर्वदग्धेन्धनमूषरं वा देशमवाप्य विध्यायति तथा मिथ्यात्ववेदनाग्निरन्तरकरणमवाप्य विध्यायतीति, सदेवं सम्यक्त्वमौषधविशेषकल्पमासाद्यमदनकोद्रव स्थानीयं दर्शनमोहनीयमशुद्ध कर्म त्रिधा भवति-अशुद्ध मर्धविशुधं विशुद्ध चेति, त्रयाणां तेषां पुजानां मध्ये यदाऽर्द्ध विशुद्धः पुंज उदेति तदा तदुदयवशादद्ध विशुद्ध महद: दृष्टतत्वश्रद्धानं भवति जीवस्य, तेन तदाऽसौ सम्यमिथ्यादृष्टिर्भवति अन्तमुहूर्त यावत् । तत ऊर्ध्व सम्यक्त्वपुंजं मिथ्यात्वपुजं वा गच्छतीति।
- ठाणांग ठाणा श सू ५१। टीका अर्थात् इस गम्भीर संसार रूप समुद्र के मध्य में परिभ्रमण करने वाले जीव ( मिथ्यात्वी ) अनाभोग-स्वभावगत हुए 'गिरि सरित् ग्राव घोलणा, न्याय से(नदी के प्रवाह में चट्टानें जिस प्रकार प्रवाह के घर्षण से कालान्तर में चिकनी और गोल हो जाती हैं । उसी प्रकार यथाप्रवृत्तिकरण से प्राप्त हुए अन्तः कोटाकोटी सागरोपम स्थिति विशिष्ट वेदने योग्य मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की रिथति में से उदयकाल के क्षण से आरम्भ कर अन्तमुहूर्त (भोगने योग्य स्थिति को) में पार कर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की संज्ञा वाले विशुद्धि विशेष से अन्तमुहूत्त कालप्रमाण अन्तरकरण करता है तथा उस अन्तरकरण के करने पर मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की दो स्थिति होती है—(१) अन्तरकरण से नीचे की अन्तमुहूत्त
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org