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मात्र स्थिति- प्रथम स्थिति जाननी चाहिए। और (२) अन्तरकरण से ऊपर की बाकी जो स्थिति होती है उसे दूसरी स्थिति जाननी चाहिए । उस प्रथम स्थिति में मिध्यात्व के दलिकों का बेदन करने से जीव मिथ्यादृष्टि होता है तथा वह जीव अन्तर्मुहूर्त से उस प्रथम स्थिति के शेष हो जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, क्योंकि अन्तरकरण के प्रथम समय में ही मिथ्यात्व दलिकों के वेदन का अभाव हो जाता है । जैसे दावानल पूर्वदग्ध ईंधनघाले स्थल को अथवा ऊसर (खारी) जमीन को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के वेदन रूप अग्नि अन्तरकरण को प्राप्त कर नष्ट हो जाती है अर्थात् उपशम हो जाती है ।
उस औपशमिक सम्यक्त्व रूप औषध विशेष को प्राप्त कर मदन कोद्रव के समान दर्शन मोहनीय रूव अशुद्ध कर्म तीन प्रकार का होता है यथा - ( १ ) अशुद्ध, (२) अद्ध विशुद्ध और (३) विशुद्ध । उन तीन पुलों के मध्य में जब अर्धविशुद्धपुत्र का उदय होता है उस समय मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से (औपशमिक सम्यक्त्व से पतित होकर ) जीव अरिहंत प्ररूपित तत्वों पर जो अर्द्ध विशुद्ध श्रद्धानमिश्रभाव से प्राप्त करता है । उस समय मिश्र श्रद्धान से अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण सम्यग मिध्यादृष्टि होती है। (संदिहानः सम्य मिध्यादृष्टिः- जैन सिद्धांत दीपिका ) अर्थात् अन्तरकरण का काल पूर्ण होने पर औपशमिक सम्यक्त्व का काल भी पूर्ण हो जाता है ; तत्पश्चात् जिस समय जिस पुत्र का उदय होता है उस समय वैसी ही दृष्टिवाला बन जाता है ।) उसके बाद वह जीव अवश्यमेव सम्यक्त्वपुञ्ज को अथवा मिध्यात्वपुख को प्राप्त करता है ।
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कतिपय आचार्यों की यह मान्यता है कि यथाप्रवृत्ति आदि तीन करण से - अन्तरकरण में मिथ्यात्वी औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, परन्तु वह त्रयपुज नहीं करता है अर्थात् सर्व अनादि मिथ्यादृष्टि विशुद्ध परिणाम से प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते समय यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करण पूर्वक अन्तरकरण करता है तथा औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । यहाँ पर
१ - यो मिथ्यादृष्टिस्तत्प्रथमतया सम्यक्त्वमौ पशमिकमवाप्नोति, स तावत्तद्भावमापन्नः सन् कालं न करोत्येव ।
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