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प्रासंगिक रूप से स्पष्ट कर देना उचित है कि जो आचार्य तीन पुरंज के बिना औपशमिक सम्यक्त्व की मान्यता स्वीकार करते हैं वे यह मानते हैं कि औपशमिक सम्यक्त्व से पतन होने पर मिथ्यात्व में जाता है । इसके विपरीत जो आचार्य तीनपुंज से औपशमिक सम्यक्त्व की मान्यता स्वीकार करते हैं वे यह मानते हैं कि औपशमिक सम्यक्त्व से पतित जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को भी प्राप्त होता है, सम्यग् मिध्यादृष्टि व मिध्यादृष्टि को भी प्राप्त होता है ।
कषायपाडु की यह मान्यता रही है कि अनादिमिध्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व उत्पन्न करता हुआ नियम से तीनों हो करणों के द्वारा सर्वोपशम रूप से हो परिणत होकर सम्यक्त्व को शुभलेश्यादि से उत्पन्न करता है तथा सादि मिथ्या दृष्टि जीव भो विप्रकृष्ट अंतर (बहुत लंबे काल से) से सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है, वह भी सर्वोपशम द्वारा ही सम्बक्त्व को उत्पन्न करता है । उससे अभ्य जीव देशोपशम और सर्वोपशम रूप से सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं—कहा है
सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह वियेण । भजियव्वो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ||
- कषायपाहुडं गा १०४ । भाग १२ | पृष्ठ ३१६ अर्थात् सम्यक्त्व का प्रथम लाभ सर्वोपशम में ही होता है तथा विप्रकृष्टजीव के द्वारा भी सम्यक्त्व का लाभ सर्वोपशम से ही होता है । किन्तु शीघ्र ही पुनः पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है । अर्थात् जो सम्यक्त्व से पतित होता हुआ शीघ्र ही पुनः-पुनः सम्यक्त्व के ग्रहण के अभिमुख होता है वह सर्वोपशम से या देशोपशन से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । कहा है
अंतमुत्तम
खव्वोवसमेण
होइ उवसंतो । ततो परमुदयो खलु तिणेक्कदरस्स कम्मरस ॥
- कषायपाहुडं गा १०३ | भाग १२ | पृ० ३१४ टीका - xxx । एवं तिन्हमण्णदरस्स कम्मरल उदयपरिणामेण मिच्छाइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी वा होदिति ।
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