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[ 8 ] अर्थात सभी दर्शनमोहनीय कर्मों का उदय भाव रूप उपशम होने से के अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशान्त रहते हैं। उसके बाद तीनों में से किसी एक का उदयपरिणाम होने से मिथ्यादृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि होता है।
सप्तमनरकपृथ्वी में नारकियों को यथाप्रवृत्ति आदि तीनों करणों के बिना औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है। पंच संग्रह में कहा है।
"सप्तमपृथिवीवतीनो नैरयिकस्यौपशमिकसम्यक्त्वमुत्पादयतों. तरकरणं कृत्वा मिथ्यात्वस्य प्रथमस्थितावनुभवतः xxx।
---पंचसंगह भाग २। गा ६४ । टीका अर्थात् सप्तम नरक के नारकी अन्तरकरण के द्वारा औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । उस औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति-अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उसके बाद वह अन्तरकरण से पसित होकर मिथ्यात्वभाव को प्राप्त करता है। दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि सप्तम नारकी में उत्पत्ति के समय तथा मरण काल के समय सम्यक्त्व नहीं होती है परन्तु अन्तरकाल में औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति अन्तरकरण के द्वारा हो सकती है लेकिन क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशामिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होनी असंभव है। विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रक्षमाश्रमण ने कहा है
तित्थ कराइपूयं दठ्ठणण्णेण वा वि कजेण । सुयसामाइयलाहो होज्ज अभव्वस्स गंठिम्मि ।
-विशेषभा० गा १२१६ टीका - अहंदादिविभूतिमतिशयवर्ती दृष्ट्वा धर्मादेवंविधः सत्कारः देवत्वराज्यादयो वा प्राप्यन्ते' इत्येवमुत्पन्नबुद्ध रभव्यस्यापि प्रथिस्थान प्राप्तस्य, 'तद्विभूतिनिमित्तम्' इति शेषः, देवत्व-नरेन्द्रत्व-सौभाग्य-रूपबलादिलक्षणेनाऽन्येन वा प्रयोजनेन सर्वथा निर्वागश्रद्धानरहितस्याऽभव्यस्यापि कष्टानुष्ठानं किं चि दंगी कुर्वतोऽज्ञानरूपस्य श्रुतसामायिक
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