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मात्रस्य लामो भवेत् , तस्याऽप्येकादशांगपाठानुज्ञानात्। सम्यक्त्वादि. लाभस्तु तस्य न भवत्येव ।
-विशेषभा० गा० १२१६ अर्थात् तीर्थकरा दि की विभूति को देखकर तथा सत्कार-सम्मान, राज्यादि की कामना से सर्वथा मोक्ष की अभिलाषा के बिना भी वे अभव्यात्माएँ किंचित भी यदि इष्टकारी अनुष्ठान करती है तो उन्हें अज्ञान रूप श्रुतसामयिक मात्र का लाभ होता है। क्योंकि अभव्यात्मा भी ग्यारह अंग का अध्ययन कर सकती है।
अस्तु, मिथ्यात्वी करण अर्थात् यथाप्रवृत्ति आदि तीन करण से तथा अकरण अर्थात् केवल अंतरकरण से सम्यक्त्व से प्राप्त करते हैं ।
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