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[ ६८ ] स्तम्भ पर चींटी के चढ़ने का प्रयास और चढ़ने के समान अपूर्वकरण नामक द्वितीय करण समझना चाहिए । चींटो में उड़ने की क्षमता होना अथवा स्तम्भ के अग्रभाग से उड़ने की क्षमता के समान अनिवृत्तिकरण नामक तृतीयकरण जानना चाहिए। अस्तु, इस अनिवृत्तिकरण में गमन करने वाला जीव नियम से मिथ्यात्व भाव को छोड़कर सम्यक्त्व को ग्रहण करता है । यदि कोई मिथ्यात्वी जीव ग्रन्थि का भेदन नहीं कर सकता है, वह स्थाणु की तरह अस्थि देश से आगे अवस्थान करता है। और वहाँ से पनः फर्मो का संचय करता है अर्थात् कर्म स्थिति की वृद्धि करता है। अतः मिथ्यात्वी तत्त्वज्ञ पुरुषों से कर्मबन्धनों के कारणों की जानकारी प्राप्त करके करप के द्वारा इस सम्यक्त्व प्राप्ति का प्रयास करे।
आगे देखिये, जिनभद्र क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में क्या कहा है
जइ वा तिन्नि मणूसा जंतऽडविपहं सहावगमणेणं । वेलाइक्कमभीया तुरंति पता य दो चोरा ।। दह्र मग्गतडत्थे ते एगो मग्गओ पडिनियत्तो । बितिओ गहिओ तइओ समइक्कतो पुरं पत्तो॥ अडवी भवो मणसा जीवा कम्मट्ठिई पहो दोहो॥ गंठी य भयहाणं रागदोसा य दो चोरा। भग्गो ठिइ परिवड्ढी गहिओ पुण गंठिओ गओ
तइओ॥ सम्मत्तपुरं एवं जोएज्जा तिण्णि करणाणि ॥
-विशेषभा० गाथा १२११ से १२१४ जैसे कोई तीन मनुष्यों ने स्वाभाविक रूप से अटवी में गमन करते हुए अधिकतर मार्ग को उल्लंघन किया। तदनन्तर काल का अतिक्रम होने से वे तीनों भयभीत हुए । इतने में वहाँ भयस्थान में उन्हें दो चोर मिले। अकस्मात् मार्ग में दो चोरों के मिलने से उन तीनों मनुष्यों में से एक मनुष्य मार्ग से वापस फिर गया, दूसरे मनुष्य को चोरों ने पकड़ लिया तथा तीसरा मनुष्य चोरों
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