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________________ सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, उस समय भी अपूर्वकरण से तीन पुंज करके अनिवृत्तिकरण से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। अस्तु, यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीनों करणों का मिथ्यात्वी के अध्यात्म विकास के उपक्रम में एक विशिष्ट स्थान है। विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रक्षमाश्रमण ने तीनों करणों को चोंटी, यात्री आदि के दृष्टांत से चटित किया है खितिसाहावियगमणं थाणू सरणं तओ समुप्पयणं । ठाणं थाणुसिरे वा ओरहणं वा मुइंगाणं॥ खिइगमणं पिव पढमं थाणूसरणं व करणमप्पुव्वं । उप्पयणं पिव तत्तो जीवाणं करणमनियट्टि । थाणु ब गंठिदेसे गंठियसत्तस्स तत्थवत्थाणं । ओयरणं पिव तत्तो पुणो वि कम्महिइविवुड्ढी ॥ -विशेषभागा० १२०८ से १२१० अर्थात् चींटी ( तेइन्द्रियजीव ) स्वाभाविक रूप से पृथ्वी पर अपनी चाल चलती हैं । कितनी एक चीटियाँ स्तम्भ पर चढ़ने का प्रयास करती हैं। स्तम्भ पर चढ़ने में चींटी की गति ऊर्ध्व मुखो होती है-यह निर्विवाद कहा जा सकता है। अपने इस प्रयास में चींटी कदाचित् सफलता को भी प्राप्त होती है । तथा कदाचित् असफलता भी मिलती है। इस प्रकार स्तम्भ पर चढ़ी हुई चींटी कभी गिरतो है, कभी चढ़ती है । अस्तु, सफल-असफल होते-होते वह भी स्तम्भ के अग्रभाग पर चढ़ती है और पंख आ जाने से वहाँ से उड़ भी जाती है। __ उपयुक्त दृष्टांत का उपनय करते हुए कहा गया है कि धरती पर स्वाभाविक रूप से गमन करने वाली चींटी की तरह पहला यथाप्रवृत्तिकरण है अर्थात यह करण मिथ्यात्वी (भव्य-अभव्य ) को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है।' १-दर्शनमोहनीयमशुद्ध कर्म विधा भवति-अशुद्धमविशुद्ध विशुद्ध चेति, त्रयाणां तेषां पुजानां मध्ये यदाऽद्ध शुद्धः पुज उदेति तदा तदुदयवशादर्धविशुद्धमहद्दष्टतत्त्वश्रद्धानं भवति जीवस्य, तेन तदाऽसो सम्यगमिथ्यादृष्टिर्भवति अन्तर्मुहूतं यावत तत ऊदचं सम्यक्त्वपुजं मिथ्यापुज वा गच्छतीति । ---- ठाणांग, ठाणा १, उ १, सू १७० से १७२ टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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