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________________ [ ६६ ] अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव की भवनवासी, वाणव्यंतर और ज्योतिषी देवों में उत्पत्ति सम्भव नहीं है अर्थात् सब सम्यग्दृष्टि जीव उपयुक्त देवों में से किसी भी देवों का आयुष्य नहीं बांधते हैं, अतः उत्पन्न नहीं होते हैं-ऐसा कहा गया है। परन्तु सभ्यग्दृष्टि के पहले अर्थात मिथ्यात्व अवस्था में आयुष्य का बन्धन हो गया हो तो वह भवनपति, वाणव्यंतर और ज्योतिषी देवों में भी उत्पन्न हो सकता है।' विशेषावश्यकभाष्य के टीकाकार आचार्य हेमचन्द्र ने कहा निवर्तनशीलं निवर्ति, न निवर्ति अनिवर्ति-आसम्बगदर्शनलाभाद् न निवर्तत इत्यर्थः ।xxx। अनिवर्तिकरणं पुनः सम्यक्त्वं पुरस्कृतमभिमुखं यस्माऽसौ सम्यक्त्वपुरस्कृतोऽभिमुखसम्यक्त्व इत्यर्थः। तत्रैवंभूते जीवे भवति । तत एव विशुद्धतमाध्यवसायरूपादनन्तरं सम्यक्त्वलाभात् । -विशेभा० गा० १२०२,३ .. अर्थात सम्यगदर्शन की प्राप्ति होने तक जिस परिणाम से निवृत्ति नहीं होता है अर्थात् वापस नहीं गिरता है उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं । इस अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्वी सम्यक्त्व के सम्मुख होता है अथवा इस करण में जल्द ही सम्यक्त्व प्राप्त होता है। अतिविशुद्ध परिणाम होने के अनन्तर ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। अनिवृत्तिकरण को किसी आचार्य ने यह भी व्याख्या की है"समान समयवर्ती जीवों की विशुद्धि समान होती है, इसलिए भी इसे अनिवृत्तिकरण की संज्ञा प्राप्त है।" जैन परम्परागत यह भी एक मान्यता रही है कि अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व परिणामों को दो भागों में विभक्त कर उसमें अन्तमहतं वेद्य प्रथमपुज को वेदनापूर्वक नष्ट कर देने तक अनिवृत्तिकरण का कार्य सम्पन्न हो जाता है। अनिवृत्तिकरण विशेष में जीव के तीनों पुँजों में सम्भवतः केवल सम्यक्त्व पुंज का प्रदेशोदय रह सकता है जबकि अपूर्वकरण में तीनों पुंज का उदय माना गया है। हो, अन्त में अपूर्वकरण में केवल सम्बक्त्व पुज का उदय रहता है ऐसी कतिपय आचार्यों की माश्यता है। जिस सम्बक्तव से पतित होकर पुनः १-गतागत का थोकड़ा। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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