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[ ६५ ] करता है। इसके बाद अपूर्वकरण के द्वितीय समय में प्रथम समय में अपष्ट द्रव्य से असंख्यातगने द्रव्य का अपकर्षण कर उदयावलि के बाहर प्रथम स्थिति दृश्यमान द्रव्य से असंख्यातगुने मात्र समय प्रबद्धों को देता है। पश्चात तृतीय समय में द्वितोय समय में अपकृष्ट द्रव्य से असंख्यात गुणे द्रव्य का अपकर्षण कर पूर्व की तरह उदयावली के बाहर प्रथम स्थिति से लेकर गलितशेष गुणश्रेणि करता है। इस प्रकार अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक सब समय में क्रमशः असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे द्रव्य का अपकर्षण कर आयुष्य बाद देकर शेष सब कर्मों की गलितशेष गुणश्रेणि करता है। इस प्रकार सम्यक्त्व और संयम के अभिमुख हुआ मियादृष्टि जीव-बादर एकेन्द्रियों, पूर्व कोटि को आयु वाले मनुष्यों और दस हजार वर्ष की आयु वाले देवों में संचित किये गये द्रव्यों से असंख्यात गुणे द्रव्य की निर्जरा करता है !
चूंकि हम पहले कह चुके हैं कि तीनों करणों के द्वारा जीव अब सम्यक्त्व और संयम को एक साथ ग्रहण करता है तब उत्तरोतर कर्मनिर्जरा की मात्रा में भी वृद्धि होती जाती है। जैन परम्परागत यह मान्यता रही है कि उस और स्थावर कायिकों में संचित हुए द्रव्य से असंख्यातगुण कर्म निर्जीर्ण कर संयम को प्राप्त होता है अर्थात् अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के द्वारा निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य अस और स्थावरकायिकों में संचित किये हुए द्रव्य से असंख्यातगुण है। इस प्रकार मिथ्यात्वी जीव करणों के माध्यम से सम्यक्त्व और संबम का लाभ ले सकता है। शुभ परिणामादि के द्वारा मिथ्यादृष्टि जोव जब सम्यगदृष्टि हो जाता है तब भवनपति, वाणव्यंतर-ज्योतिषो देवों के आयुष्य का बंधन नहीं करता है। जैसा कि षटखंडागम के टीकाकार आचार्य वीरसेन ने कहा है
ण, सम्मादिहिस्स भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिएसु उत्पत्तीए अमावादो।
-षट्खंडागम ४,२,४,६११पु०१० पृष्ठ २८४
१ दोहि वि करणेहि णिज्जरिददव्वं xxx तेण तसथावरकाइएसु संचिददव्वादो असंखेज्जगुणं दव्वं णिज्जरियं संजमं पडिवण्णो त्ति घेत्तव्वं ।
- षट. ४,२,४,६०। पु १०पृ०२८२-२५३ ।
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