________________
[ ६२ ] यो भाव सर्वतोंघाती स्पर्धकानुदयोद भवः । क्षायोपशमिकः स स्यादुदयोहशा घातीनाम् ।
-पंच० अ०२ अर्थात मिथ्यात्व मोह और मिश्र मोह सर्वधाती स्पर्धक हैं । इनका आवरण विशुद्ध सम्यग् दर्शन को प्रकट नहीं होने देता । सम्यक् मोह देवघाती स्पर्द्ध धों का उदय होने पर आत्मा की जो अवस्था बनती है, वह क्षायोपरामिक सम्यगदर्शन है। विशेषावश्यक भाष्य के टीकाकार श्रीमद् आचार्य हेमचंद्र ने कहा है___ सैद्धान्तिकानां तावदेतत् मतं यदुत -अनादिमिथ्यादृष्टि कोऽपि तथाविधसामग्रीसद्भावेऽपूर्वकरेणन पुंजत्रयं कृत्वा शुद्धपुञ्जपुद्गलान वेदयनौपशमिकं सम्यक्त्वमलध्यैव प्रथमत एव झायोपशमिकसम्यग्दृष्टिर्भवति ।
-विशेभा० गा ५३०। टीका अर्थात अनादि मिथ्यादृष्टि तत्प्रकार की सामग्री उपलब्ध होने पर अपूर्वकरण के द्वारा मिथ्यात्व के तीन पुज कर ( शुद्ध-अशुद्ध-अर्धशुद्ध ) उनमें शुद्ध पुज का वेदच करता हुआ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है । अस्तु, कोई जीव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त किये बिना ही अपूर्वकरण से मिथ्यात्व दलिकों के तीन पुज (शुद्ध-अर्द्ध शुद्ध-अशुद्ध ) बनाकर शुद्ध पुद्गलों का अनुभव करता हुआ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है।' चूंकि दर्शन मोह के तोन पुज होते हैं-१. मिथ्याज-अशुद्धपुज, २. मिश्रपुज -अर्द्ध शुद्धपुज, ३. सम्यगपुज-- शुद्धपुज । क्षायोपरामिक सम्यक्त्व में शुद्धपुज का प्रदेशोदय रहता है, वह सम्यक्त्व में बाधक नहीं बनता है। इसलिए कहा गया है कि मिथ्यापुज अशुद्धपुज को उदयकालीन अवस्था में मिथ्यादर्शन, मिश्रज-अर्द्ध शुद्धि को उदयकालीन अवस्था में सम्यगमिथ्यादर्शन और सम्यग पुज की उदयकालीन अवस्था में क्षायोपशमिक सम्यग दर्शन १-कश्चित् पुनः अपूर्वकरणेन मिथ्यात्वस्य पुजत्रयं कृत्वा शुद्ध पुजपुद्गलान् वेदयन प्रथमत एवं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्व लभते ।
----जन सिद्धान्न दीपिका ५८
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org