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। ६३ ] प्रकट होता है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि अपूर्वकरण में केवल क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्ति हो सकती है। यहाँ जैन परम्परागत मानी हुई मान्यता का निदर्शन करना उचित होगा। कर्मग्रन्थकार की यह मान्यता है कि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सबसे पहले औपशमिक सम्यग दर्शन को प्राप्त करता है तथा अन्यान्य ग्रन्थकारों की ( सिद्धान्त पक्ष ) यह मान्यता है कि पहले-पहल अमुक सम्यग् दर्शन की हो प्राप्त होती है --यह कोई नियम नहीं है। अस्तु, तीन' सम्यक्त्व में से किसी भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है। सास्वादन तथा वेदक सम्यक्त्व का ग्रहण क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में हो जाता है। ____ अपूर्वकरण के बाद मिथ्यात्वी के विकास क्रम में अनिवृत्तिकरण तृतीय चरण है । मिथ्यात्वो जोव निर्विवाद इस अनिवृत्तिकरण में सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त किये बिना यह वापस नहीं लौटता । इसलिये इसे अनिवृत्तिकरण कहा जाता है । अपूर्वकरण परिणाम से जब राग-द्वेष की गांठ टूट जाती है तब उस अपूर्वकरण की अपेक्षा से अधिक विशुद्ध परिणाम होता है । उस विशुद्ध परिणाम को अनिवृत्तिकरण कहते हैं । अर्थात इस करण के परिणाम अपूर्वकरण की अपेक्षा अत्यन्त निर्मल होते हैं। इसका समय भी अन्तर्मुहूर्त परिमाण होता है। सिद्धांतचक्रवतिनेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार जीवकांड में कहा है
होंति अणियट्टिणो ते पडिसमयं जेस्सिमेक्क परिणामा। विमलयरमाणहुयवहासिहाहिं गिद्दड्ढ कम्मवणा ।। ५७॥
-गोम्मटसार, जोवकांड गा ५७ अनिवृत्तिकरण का जितना काल है उतने ही उसके परिणाम है अर्थात् अनिवृत्तिकरण रूप अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतने ही उसके परिणाम है । इसलिए अनिवृत्तिकरण की स्थापना मुक्तावली की तरह होती है । युगप्रधान आचार्य तुलसी ने जैनसिद्धांत दीपिका में कहा है -
अपूर्वकरणेन भिन्ने अन्यौ येनाध्यवसायेन उदीयमानाया मिथ्यात्वस्थितेरन्तमुहूर्तमतिक्रम्य उपरितनी चान्तमुर्तपरिमाणामवरुध्य
१ -तीन सम्यक्त्व : -मायोपशमिक -औरमिक-सायिक ।
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