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[६१ ] साय विशेष से अपूर्वकरण कहते हैं।' विशेषावश्यक भाष्य के टीकाकार श्रीमद् आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
प्रन्थिं तु समतिक्रामतो भिन्दानस्याऽपूर्वकरणं भवति, प्राक्तनाद् विशुद्धतराध्यवसायरूपेण तेनैव ग्रन्थेहेंदादिति ।
-विशेमा० गा १२०३ टीका
अर्थात रागद्वेषात्मक ग्रन्थि के भेदन करने से मिथ्यात्वी अपूर्वकरण को प्राप्त होता है अर्थात् अपूर्वकरण में छेदन-भेदन का कार्य प्रारम्भ हो जाता है क्योंकि पूर्व अध्यवसाय को अपेक्षा शुद्ध अध्यवसाय से ग्रन्थि का भेदन होता है अतः कहा जा सकता है कि यथा प्रवृत्तिकरण में विचारों में शक्तियां बिखरी हुई होती हैं, इसलिए ग्रन्थि के छेदन-भेदन का दुरुह कार्य इस करण में नहीं हो सकता है। जबकि अपूर्वकरण में विचारों की नाना प्रकार की विचार धारा घटती जाती है और शक्ति केन्द्रित हो जाती है। अस्तु, विशुद्धतानिमलता को अपेक्षा से भी परिणामों में तीव्रता आदी जाती है, अतःइस रागद्वेषात्मक ग्रन्थि के छेदन-भेदन रूप दुरूह कार्य करने में यह करण सफल हो जाता है । ग्रन्थि भेद के काल के विषय में विभिन्न आचार्यों का विभिन्न प्रकार का मत है। कतिपय आचार्य अपूर्वकरण में ग्रन्थि का भेदन मानते हैं और कतिपय आचार्य अनिवृत्तिकरण में ग्रन्थि का भेदन मानते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी आचार्यो की परम्परागत मान्यता रही है कि अपूर्वकरण में ग्रन्थि भेदन के कार्य का आरम्भ होता है और अनिवृत्तिकरण में ग्रन्थि के भेदन के कार्य की परिसमाप्ति हो जाती है। अपूर्वकरण की पुनरावृत्ति कतिपय आचार्य मानते हैं, कतिपय नहीं । अस्तु, कतिपय आचार्य मानते हैं कि अपूर्वकरण में मिथ्यात्व दलिकों का शोधन होते समय क्षायोपशमिक सम्यगदर्शन की उपलब्धि होती है जैसा कि पंचध्यायी में कहा है
१-अप्राप्तपूर्वमपूर्वम् । स्थितिघात-रसघाताद्यपूर्वार्थनिर्वर्तकं वाऽपूर्वम्
--विशेषावश्यक भाष्य गा १२०२ टोका
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