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[६० ] अर्थात तीवधार पशु की तरह यह करण अपनी प्रबल शक्ति से ग्रन्थि को छिन्न-भिन्न कर देता है।
इस करण में ऐसे परिणामों को उपलब्धि होती है, जिनका पूर्व में अनुभव नहीं किया गया हो। कहा जा सकता है कि यथाप्रवृत्तिकरण की अपेक्षा अपूर्वकरण में परिणामों में नवीनता विशुद्धता आती है । अपूर्वकरण में परिणामों की विशुद्धि प्रतिसमय-उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। गोम्मटसार में सिद्धांत चक्रवर्ती नेमीचन्द्राचार्य ने कहा है
अंतोमुहुत्तकालं गमिउण अधापवत्तकरणं तं । पडिसमयं सुझतो अपूवकरणं समुल्लियइ ॥
___-गोम्मट जीवकांड, गाथा ५० अथात् गुण की अपेक्षा प्रतिसमय यथाप्रवृत्तिकरण से अपूर्वकरण में मिथ्यात्वी के अधिक निर्मलता आती है। यद्यपि संख्या की अपेक्षा--यथाप्रवृत्तिकरण की अपेक्षा अपूर्वकरण के परिणामों की संख्या न्यून है अर्थात् यथाप्रवृत्तिकरण में परिणामों की संख्या में वृद्धि होती जाती है । इसके विपरीत अपूर्वकरण में प्रति समय परिणाम घटते जाते हैं। अतः यथाप्रवृत्तिकरण की अपेक्षा अपूर्वकरण में विशुद्धत्तर के विवेचन में कहा है
इत्थं करणकालात् पूर्वमन्तमुहूत कालं यावदवस्थाय ततो यथाक्रम त्रीणि करणानि प्रत्येकमान्तमौहूर्तिकानि करोति । xxx अस्मिंश्चापूर्वकरणे प्रथमसमये एवं स्थितिघातो रसघातो गुणश्रेणिगुणसङ्कमोऽन्यश्च स्थितिबन्ध इति पंच पदार्था युगपत् प्रवर्तन्ते ।
-कर्म० भाग ६ । गा० ६२ । टीका . अर्थात् अपूर्वकरण का स्थितिकाल भी अन्तमुहूर्त मात्र का कहा गया है । स्थितिघात, रसघातगुण, श्रेणिगुण, सक्रम और अभिनव स्थिति बंध की प्रक्रिया इस करण में युगपत् प्रथम समय में ही प्रारम्भ होती है। पूर्व में कभी भी प्राप्त नहीं हुआ-ऐसा अपूर्व स्थितिघात, रसघात आदि को करनेवाले अध्यव
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