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अत्र चान्तरे जीवस्य कर्मजनितो घनरागद्वेषपरिणामः कर्कशनिबिडचिरप्ररुढ़गुपिलवक्रग्रंथिवद् दुर्भेदोऽभिन्नपूर्वो प्रथिर्भवति ।
-कर्म० अ २ । गा २ । टीका अर्थात् इस गंभीर-अपार संसार सागर के मध्य में अनन्त पुद्गल परावर्तन से परिभ्रमण करते हुए किसी समय मिथ्यात्वी ( भव्य तथा अभव्य ) उसी प्रकार कर्मों की स्थिति को घटाता है जिस प्रकार नदी में पड़ा हुआ पत्थर घिसते-घिसते गोल हो जाता है। इस प्रकार आयुष्य कर्म के सिवाय ज्ञानाधरणीयादि कर्मों की स्थिति को अन्त: कोटा-कोटि सागरोपम परिमाण रखकर बाकी की स्थिति क्षय कर देता है। अर्थात् एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम में से पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्युन स्थिति कर देता है तब जीव यथाप्रवृत्ति करण को प्राप्त होता है। यथाप्रवृत्ति करने वाला मिथ्यात्वी ग्रंथिदेश-रागद्वेष की तीव्रतम गांठ के निकट आ जाता है, पर उस राग-द्वेषात्मक गांठ का परिच्छेदन नहीं कर सकता है ।
जिस प्रकार घुणाक्षर न्याय से अर्थात् घुण कोट से कुतरते-कुतरते काठ से अक्षर बन जाते हैं, उसी प्रकार अनादि-कालोन मिथ्यात्वी जीव कर्मों की स्थिति को यथाप्रवृत्तिकरण में न्यून कर देता है।
आवश्यकसूत्र के टीकाकार को मान्यता है कि यथाप्रवृत्तिकरण से अभव्यमिथ्यात्वो भी श्रुतलाभ ले सकते हैं।
"अभव्यस्यापि कस्यचिद्यथाप्रवृत्तिकरणतो प्रथिमासाद्याहदादिविभूतिसन्दर्शनतः प्रयोजनान्तरतो का प्रवर्त्तमानस्य श्रुतसामायिकलाभो भवति। न शेष सामाषिकलामः ।" ।
-आव० नि गा १०॥ मलयगिरि टीका अर्थात् यथाप्रवृत्तिकरण में प्रथि के समीप पहुँच कर अभव्य अर्हत् प्रणीत श्रुत रूप सामायिक का लाभ ले सकता है, परन्तु अन्य सामायिक का लाभ नहीं ले सकता है । विशेषावश्यक भाष्य में कहा है
जा गंठी ता पढमं
-विशेभा० गा १२०३ पूर्वार्ध
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