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रहण करने से ग्रन्थि देश को प्राप्त होता है अर्थात् आत्मा रागद्वेषात्मक ग्रन्थि के समीप पहुँच जाता है । उस समय आयुष्यकर्म को बाद देकर शेष सात कर्मों की स्थिति देशोन एक कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण रखकर अवशेष कर्मो का क्षय शीव ( मिथ्यात्री ) कर डालता है । ( मिथ्यात्व ) यथाप्रवृत्तिकरण को प्राप्त होता है ।
इस प्रकार जोव
एकान्त रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि सभी मिध्यात्वी को बहु कर्मों का बन्ध होता है तथा अल्प कर्म की निर्जरा होती है । यदि सभी मिध्यात्वी के बहुकर्मो का बन्ध होता रहे, अल्प कर्मों की निर्जरा होती रहे तो वे मिथ्यात्वी कभी भी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकेंगे । परन्तु ऐसा नियम हो नहीं सकता, क्योंकि मिध्यात्वों को सम्यक्त्व प्राप्त होने के पहले बहु कर्मो का क्षय होने से सम्यक्त्व प्राप्त होता है । निम्नलिखित तीन विकल्प मिल सकते हैं । यथा
अतः मिथ्यात्वी में
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तथा अल्प कर्म की हेतुभूत क्रिया एक
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१ — कोई एक मिथ्यात्वों के बहुकर्म का बन्ध होता है निर्जरा होती है, २ - कोई एक मिध्यात्वी के कर्म बन्ध की समान होती है तथा ३ – कोई एक मिध्यात्वो के बश्ध हेतु की न्यूनता होने से तथा कर्मक्षय की हेतु की उत्कृष्टता होने से कर्म बन्ध अल्प होता है तथा निर्जरा अधिक होती है । इन तीनों विकल्पों में से तीसरे विकल्प में वर्तता हुआ मिथ्याहष्टि ग्रन्थि देश को प्राप्त होता है । अस्तु अनाभोगपन से बहुकर्मो का क्षय होता है । इस प्रकार कतिपय मिथ्यात्वी यथाप्रवृत्तिकरण से अनाभोग से कर्म स्थिति का क्षय होने से ग्रन्थि में प्रवेश होता है ।
कर्मग्रन्थि में देवेन्द्रसूरि ने कहा है
" इह गंभीरापारसंसारसागर मध्य मध्यासीनो जंतु र्मिथ्यात्व प्रत्ययमनन्तान् पुद्गलपरावर्ताननन्तदुःखलभाण्यनुभूय कथमपि तथाभव्यत्वपरिपाकवशतो गिरिसरिदुपलघोलना कल्पेनानाभोग निर्वर्तियथाप्रवृत्त करणेन 'करणं परिणामोऽत्रं' इति वचनाद् अध्यवसायविशेषरूपेणाऽऽयुर्वर्जीनि ज्ञानावरणीयादिककर्माणि सर्वाण्यपि पत्योपमासंख्येभागन्यूनैक सागरोपम कोटाकोटी स्थितिकानि करोति ।
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