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[ ५८ ] टीका-अनादिकालादारभ्य यावद् ग्रन्थिस्थानं तावत् प्रथम यथाप्रवृत्तिकरणं भवति, कर्मक्षपणनिबन्धनस्याऽध्यवसायमात्रस्य सर्वदेव भावात् , अष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयप्राप्तानां सर्वदैव क्षपणादिति ।
अर्थात् अनादि काल से आरंभ होकर जब तक तीव्र राग-द्वेष के परिणाम रूप ग्रथि स्थान को प्राप्त होता है तब तक यथाप्रवृत्तिकरण होता है क्योंकि उस अवस्था में मिथ्यात्वी के कर्मक्षय करने का कारण भूत अध्यवसाय मात्र होता है, परन्तु कर्मक्षय करने की बुद्धि नहीं होती है, अतः इसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । इस करण में मात्र उदय प्राप्त अष्टकर्मप्रकृत्ति का सर्वदा क्षय होता है।
जैसे कोई एक मनुष्य अटवी में इधर-उधर परिभ्रमण करता हुआ स्वयं योग्यमार्ग (राजमार्ग) को प्राप्त कर लेता है, कोई एक दूसरे के कहने के अनुसार योग्यमार्ग को प्राप्त करता है और कोई एक योगमार्ग को नहीं प्राप्त कर सकता है, उसी प्रकार कोई एक मिथ्यात्वी संसार रूपी अटवी में परिभ्रमण करते हुए प्रन्थि देश को प्राप्त कर स्वयं सम्यक्वादि सन्मार्ग को प्राप्त होते हैं, कोई एक परोपदेश से प्राप्त होते है तथा कोई एक दुभंव्य सम्यक्त्वादि सन्मार्ग को कमी भी प्राप्त नहीं कर सकते है। अर्थात् प्रन्थिदेश को प्राप्त कर वापस नीचे गिर जाते हैं। विशेषावश्यक भाष्य में कहा है
भेसज्जेण सयं वा नस्सइ जरओ न नस्सइ कोइ। भव्वस्स गंठि देसे मिच्छत्तमहाजरो चेवं ।।
-विशेषभा० गा १२१६ टीका-यथा ज्वरगृहीतस्य कस्यापि कथमपि ज्वरः स्वयमेवापती, कस्यचित्तु भेषजोपयोगात् , अपरस्य तु नापगच्छति । एवं मिथ्यात्वमहाज्वरोऽपि कस्यापि ग्रन्थिभेदादिक्रमेण स्वयमेवापगच्छति, कस्यचित्त गुरुवचनभेषजोपयोगात अन्यस्तु नापैती। सदेवमेतास्तिस्रोऽपि गतयो, भव्यस्य भवति, अभव्यस्य त्वेकैव तृतीया गतिरिति ।
अर्थात् जैसे ज्वर से जकड़ित मनुष्य का ज्वर कभी औषधि के उपचार बिना दूर हो जाता है, कोई का ज्वर औषधि के उपचार से दूर नहीं होता वैसे ही मिथ्यात्व रूप महा ज्वर भी किसी भव्यात्मक का स्वाभाविक रूप से नाश
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