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तृतीय अध्याय १ : मिथ्यात्वी और करण-अकरण मिथ्यात्वी अकरण (केवल अंतकरण) से भी सम्यक्रव को प्राप्त करते हैं, जिसका विवेचन आगे किया जायगा।।
मिथ्यात्वी करण से भी सम्यक्त्व को प्राप्त करते है। आत्मा के परिणाम विशेष को करण कहते हैं।' आचार्य हेमचन्द्र ने विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में कहा है:क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणं सर्वत्र जीवपरिणाम एवोच्यते ।
___-विशेषावश्यक भाष्य गा० १२०२ टीका अर्थात् कर्मक्षय करने का-जीव का परिणाम विशेष करण कहलाता है। करण के तीन भेद होते है-यथा-यथाप्रवृत्तिकरण (अधःप्रवृत्त), अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ।२ अनादिकाल के पश्चात मियादृष्टि जोव की कमक्षपण की प्रवृत्ति-प्रचेष्टा रूप अध्यवसाय विशेष को अधःप्रवृत्ति करण कहते हैं । षट्इंडागम में कहा है
पढमसम्मत्त संजमं च अकम्मेण गेण्हमाणो मिच्छाइट्ठी अधापवत्तकरण-अपुवकरणं-अणियट्टिकरणाणि कादूण चेव गेहदि। तत्थ अधापवत्तकरणे णत्थि गुणसेडीए कम्मणिज्जरा गुणसंकमो च । किन्तु अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो चेव गच्छदि। तेण तत्थ कम्मसंचओ चेवण णिज्जरा।
-षट० ४, २, ४, ६०पु १०० २८० प्रथम सम्यक्त्व और संयम को एक साथ ग्रहण करने वाला मिध्यादृष्टि अध. प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करण करके ही ग्रहण करता है। उनमें से अधःप्रवृत्तकरण में गुणश्रेणि कर्मनिर्जरा और गुणसंक्रमण नहीं होता है, किन्तु · १-परिणाम विशेषः करणम्-जेनसिद्धांत दीपिका ५।७ २- यथाप्रवृत्त्यपूर्वानिवृत्तिभेदात् त्रिधा-जैन सिद्धांत दीपिका ५५
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