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अनंतगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता ही जाता है । अतः अधःप्रवृत्त करण मैं कर्मसंचय ही है, निर्जरा नहीं है । विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्र क्षमाश्रमण ने कहा है
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करणं
अहापवत्त अपुनम नियट्टियमेव ।
इरेसि पढमं चिय भन्नइ करणं ति परिणामो ॥ टीका-इह भव्यानां त्रीणि करणानि भवन्ति, तद्यथायथाप्रवृत्तकरणम्, अपूर्वकरणम्, अनिवर्तिकरणं चेति । तत्र येऽनादि - संसिद्धप्रकारेण प्रवृत्तं यथाप्रवृत्त क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणं सर्वत्र जीवपरिणाम, एवोच्यते, यथाप्रवृत्तं च तत्करणं च यथाप्रवृत्तकरणम्. एवमुत्तरत्रापि करणशब्देन कर्मधारयः, अनादिकालात् कर्मक्षपणप्रवृत्तोऽध्यवसाय विशेषो यथाप्रवृत्तकरणमित्यर्थः । अप्राप्तपूर्वम् स्थितिघात रखघाताद्यपूर्वार्थ निर्वर्तक वाऽपूर्वम् । निवर्तनशीलं निवर्ति, न निवर्ति अनिवर्ति आ सम्यग्दर्शनलाभाद न निवर्तत इत्यर्थः । एतानि त्रीण्यपि यथोत्तरं विशुद्ध-विशुद्ध तर विशुद्धतमाध्यवसायरूपाणि भव्यानां करणानि भवन्ति । इतरेषां त्वभव्यानां प्रथममेव यथाप्रवृत्तकरणं भवति, नेतरे द्वे इति ।
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— विशेषावश्यक भाष्य गा १२०२ अर्थात् अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करने वाले -- मिथ्यात्वी जीव की जब आयुष्य कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की स्थिति कुछ कम एक कोड़ा - कोड़ सागर परिमित होती है तब वह जिस परिणाम से दुर्भेद्य रागद्वेषात्मक ग्रन्थि के पास पहुँचता है, उसको यथाप्रवृतिकरण कहते हैं । अनादिकाल से कर्मों का क्षय करने का अध्यवसायविशेष यथाप्रवृतिकरण है । को भव्य तथा अभव्य दोनों प्राप्त करते है । शेष के दो परिणाम अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण भग्य जीव ही प्राप्त करते हैं, परन्तु अभव्य जीव प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।
इस करण
यथाप्रवृत्तिकरण में मिध्यात्वी ग्रन्थि के समीप पहुँचता है । यथावृत्तिकरण पानी की तरह है । इस करण में मोह के स्थूल परत हट जाते हैं, परन्तु राग-द्व ेष की ग्रन्थि नहीं टूटती । इस करण में मिथ्यात्वी के प्रत्येक समय उत्तरोतर अनन्त
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