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। ५१ ] सारभूत है, महासमुद्र से भी गम्भीर है, मेरुपर्वत की तरह स्थिर है। उस सत्य के व्यापार को सावध कैसे कहा जा सकता है। निरवच सत्य की प्रशंसा वीतरागदेव ने की है उस सत्य के आचरण करने के अधिकारी मिथ्यात्वी-- सम्यक्त्वी दोनों हो सकते हैं। सत्य को क्रिया निरवध है। जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति तथा जोवाभिगम सूत्र में कहा है कि मिथ्यात्वी शुभ अध्यवसाय, शुद्धपराक्रमादि से वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होता है।
सम्यगज्ञान, सम्यगदर्शन रहित परन्तु शील क्रिया सहित बालतपस्वो को भगवान ने देश आराधक कहा है । बालतपस्वी को संवर रूप व्रत नहीं होता है परन्तु निर्जरा होती है । कहा है--
"तामली तापस ६० हजार वर्ष ताई बेले २ तपस्या कीधी तेहथी वणा कर्मक्षय किया। पछे सम्यग्दृष्टि पाप मुक्तिगामी एकावतारी थयो।" xxx। वली पूरण तापस १२ वर्ष बेले-बेले तप करी "घणा कर्म खपाया चमरेन्द्र थयो सम्यग्दृष्टि पामी एकावतरी थयो । इत्यादिक वणाजीव मिथ्याती थका शुद्ध' करणी थकी कर्म खपाया तेकरणी शुद्ध छ । मोक्षनो मार्ग छै।"
अस्तु एकांत अनार्य मिथ्यादृष्टि (आचार-श्रुतादिरहित) को सर्वविराधक कहा है।
अस्तु मिथ्यात्वी धर्म की मंशतः आराधना कर सकते हैं।
(१) भ्रमविध्वंसनम पृष्ठ ४ (२) भगवती श ८ उ १०
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