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[ ५० ] महानल से दीर्घकाल संचित कर्मरूपी इंधन को जलाकर भष्म कर दिया था ! कहा है। ___ "जह एगा मरुदेवी अच्चंतं थावरा सिद्धा" अर्थात अकेली मरुदेवी ने दूसरी किसी गति में गए बिना व संसार-परिम्रमण किये बिना सीधे वनस्पति पर्याय से निकल कर (अनादिनिगोद से प्रत्येक वनस्पतिकाय का भव ग्रहण किया, प्रत्येक वनस्पतिकाय से मरुदेवी बनी) मोक्ष प्राप्त कर लिया।" ___तत्त्वतः मरुदेवी ने क्षमा, निर्लोभता, आजव और मादव रूप चारो धर्म द्वारों की आराधना कर मिथ्यात्व से सम्यक्त्व को प्राप्त किया ।
अजीविक सम्प्रदाय अर्थात् गोशालक के साधु चार प्रकार का तप करते थे। कहा है.. आजीवियाणं चउविहे तवे पन्नत्ते, संजहा-उग्गतवे, घोरतवे, रसनिज्जुहणया, जिभिदियपडिसंलीणया।
-ठाणांग ठाणा ४, उ २ सू ३५० अर्थात गोशालक के शिष्य चार प्रकार का तप करते थे --उग्रतप, घोरसप, रसपरित्याग तथा जिह्वा-प्रतिसंलीनता ।
यद्यपि आजीविक सम्प्रदाय के साधु-जैनमतानुयायी नहीं थे लेकिन उपयुक्त चारों प्रकार का वे तप करते थे। उनका तप करना निरवद्य कार्य था। निर्जरा के बारह भेदों में प्रतिसलीनता तप भी आया है फिर उसके चार भेदों में इन्द्रियप्रतिसलीनता भी है।
यदि मिथ्यात्वी सत्य वचन को ग्रहण कर असत्य का आचरण नहीं करता है वह निरवद्य है ; जितने अंश में वह असत्य को छोड़ता है वह निरवध है। कहा है
अणेगपासंड-परिग्गहिय, जंतं लोकम्मि सारभूयं । गंभीरतरं महासमुद्दाओ, थिरतरग मेरुपव्वयाओ।
--प्रश्नव्याकरण संवर द्वार २, सू १० अर्थात जेनेतर-अन्यतीर्थियों ने सत्य को ग्रहण किया है। सत्य लोक में
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