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[४६ ] उपर्युक्त दस धर्मों में से मिथ्यात्वी बांशिक धर्म की आराधना कर सकता है । धर्म के द्वार सबके लिए खुले हुए हैं। उत्तराध्धयन में कहा है
धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई।
-उत्त० अ० ११२ अर्थात धर्म पवित्र आत्मा में ठहरता है। जब क्यों नहीं मिथ्यात्वी शुभ अध्यवसाय से धर्मरूप द्वारों की आराधना कर सकते हैं। प्रकृति को भद्रता, विनीतता आदि गुण निरवद्य है तथा इन अवस्थाओं में मिथ्यात्वी मनुष्य या देवगति के आयुष्य का बंधन करता है अत: मिथ्यात्वी भी शांति, आजव, मार्दव
और मुक्ति-निर्लोभता आदि धर्म द्वारों की देशतः आराधना कर सकते हैं । निरवध कार्य में भगवान ने धर्म कहा है। 'आणाए धम्माए भगवान की आज्ञा में धर्म है। योगशास्त्र में आचार्य हेमचंद्रने कहा है
पूर्वमप्राप्तधर्माऽपि परमानन्दनन्दिता । योगप्रभावतः प्राप्ता मरूदेवी परं पदम् ॥
-प्रकाश १११ टीका-मरुदेवा हि स्वामिनी आसंसारं त्रसत्वमात्रमपि नानुभूतवती किं पुनर्मानुषत्वं तथापि योगबलसमृद्ध न शुक्लध्यानाग्निना चिरसंचितानि कम्मॆन्धनानि भस्मसात्कृतवती।
यदाह-जह एगा मरुदेवा अच्चंतं थावरा सिद्धा, xxx ननु जन्मान्तरेऽपि अकृतक रकर्मणां मरुदेवादीनां योगबलेन युक्तः कर्मक्षयः।
अर्थात पहले किसी भी जन्म में धर्मसंपत्ति प्राप्त न करने पर भी योग के प्रभाव से मुदित (प्रसन्न) मरुदेवी माता ने परमपद-मोक्ष प्राप्त किया है। मरुदेवो माता ने पूर्व किसी भी जग्म में सद्धर्म प्राप्त नहीं किया था और न सयोनि प्राप्त की थी और न मनुष्यत्व का ही अनुभव किया था। केवल मरुदेवी के भव में योगबल से मिथ्यात्व से सम्यक्त्व को प्राप्तकर, फिर समृद्ध शुक्लध्यानरूपी
१-आचारांग
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