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[ ४८ ] जैसे गाढ़ मेघ से आच्छादित सूर्य और चंद्र की किंचित् प्रभा रहती ही है, यदि ऐसा नहीं होता तो रात्रि और दिन का अभेद होता।
प्रथम गुणस्थान में भी शुद्धि-अशुद्धि की तरमता के कारण अनेक भेद होते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव में भी साधुओं को नमस्कार करने की, शुद्ध दान देने की प्रवृत्ति देखी जाती है।
चूंकि मिथ्यात्वी का गुणस्थान प्रथम है। प्रथम गुणस्थान में निम्नलिखित आलाप होने हैं।
चौदह जीव समास, छह पर्याप्तियाँ, दस प्राण, चार संज्ञा, चार गति, एकेन्द्रिय आदि पांच जाति, पृथ्वीकाय आदि छह काय, तीन वेद, चार कषाय, तीन अज्ञान, चक्षुआदि तीन दर्शन, तेरह योग, द्रव्य और भाव की अपेक्षा छह लेश्या, भव्यसिद्धिक-अभव्यसिद्धिक, मिथ्यात्व, संज्ञिक-असंज्ञिक, आहारक-अनाहारक, साकारोपयोगो और अनाकारोपयोगी।'
७ : मिथ्यात्वी और धर्म के द्वार धर्म के चार द्वार है --यथा क्षाति, मुक्ति-निर्लोभता, आर्जव और मार्दव ।। मिथ्यात्वी इन चारों धर्म द्वारों की आराधना देशतः कर सकता है । क्रोध का प्रतिपक्ष शांति धर्म है, मान का प्रतिपक्ष मादव धर्म है, माया का प्रतिपक्ष आर्जव धर्म है और लोभ कषाय का प्रतिपक्ष धर्म मुक्ति-निर्लोभता है। शांति आदि दस धर्मों में भी इन सबका नाम आया है।-ठाणांग सूत्र में कहा है
दस विधे समणधम्मे पन्नत्त, संजहा -- खंती, मुत्ती, अज्जवे, महवे, लाघवे, सच्चे, संयमे, तवे, चिताते, बंभचेरवासे ।
__ --ठाणांग ठाणा १०, सू १६ अर्थात् श्रमणधर्म दस प्रकार का है, यथा-शांति, मुक्ति, आजव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास।
१-षटूखण्डागम १,१,३२। पृ० ४२३ से ४२५ २-चत्तारि धम्म दारा पन्नत्ता, संजहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे गावे।
-ठाणांग ४।४। स १२७
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