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। ४७ ] लोकप्रकाश में कहा है
तत्र मिथ्या विपर्यस्ता, जिनप्रणीतवस्तुषु । दृष्टिर्यस्य प्रतिपत्तिः, स मिथ्यादृष्टिरुच्यते ॥ यत्तु तस्य गुणस्थानं, सम्यग्दृष्टिमबिभ्रतः । मिथ्यादृष्टिगुणस्थान, तदुक्त पूर्वसुरिभिः ।। ननु मिथ्याशां दृष्टेविपर्यासात्कुतोभवेत् । ज्ञानादिगुणसद्भावो, यद्गुणस्थानतोच्यते ॥ अत्र बमः ॥ भवद्यद्यपि मिथ्यात्ववतामसुमतामिह । प्रतिपत्तिविपर्यस्ता, जिनप्रणीतवस्तुषु ॥ तथापि काचिन्मनुज पश्वादिवस्तुगोचरा । तेषामप्यविपर्यस्ता, प्रतिपत्तिर्भवेद, एवम् ॥ आस्तामन्ये मनुष्याद्या, निगोददेहिनामपि । अस्त्यव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिर्यथा स्थिता ॥ यथा घन वनच्छन्नेऽपि स्यात्काऽपि तत्प्रभा । अनावृत्ता न चेद्रात्रिदिना भेदः प्रसज्यते ॥
--- लोकप्रकाश-द्रव्यलोक पृ० ४८१,८२ अर्थात मिथ्या अर्थात सर्वज्ञ देव के द्वारा कथित पदार्थों में विपरीत जिसकी दृष्टि होतो उसे मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं। सम्यग्दृष्टि को नहीं धारण करने वाले उन मिथ्यादृष्टि जीवों का पूर्वाचार्यों ने मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहा है । प्रश्न हो सकता है कि मियादृष्टि जीवों की विपरीत दृष्टि होने के कारण उनमें ज्ञानादि गुणों का सद्भाव कैसे हो सकता है जिससे कि उनका गुणस्थान कहा जाय । इसका समाधान यह है कि यहाँ सर्वज्ञ प्रभु द्वारा कथित पदार्थों में मिथ्यात्वी जीवों को विपरीत श्रद्धा होती है फिरभी मनुष्य, पशु आदि पदार्थों में उन्हें किंचित अविपरीत श्रद्धा ( मनुष्य को मनुष्य रूप, पशू को पशुरूप मानने रूप ) भी निश्चित रूप से होती है मनुष्यादि को छोड़कर निगोद जोवों में भी अविपरीत ऐसा अव्यक्त स्पर्शमात्र का ज्ञान होता है
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