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प्रसंगात् ।
यद्यपि सर्वथाऽतिप्रबलमिध्यात्वमोहनीयोदयाद् अर्हत्प्रणीतजीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिरूपा दृष्टिरसुमतोविपर्यस्ता भवति तथापि काचिद मनुष्य पश्वादिप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता, ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताऽव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिरविपर्यस्ताऽपि भवति, अन्यथाऽजीवत्वसुठु वि मेहसमुदए होइ पहा चंदसूराणं । ( नन्दी पत्र० १६५-२ ) इति ! एवमिहापि प्रचलमिध्यात्वोदयेऽपि काचिद विपर्यस्वापिष्टिर्भवतीति तदपेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि गुणस्थानसंभवः । - कर्मग्रंथ भाग २ | पृ० ६८ अर्थात् मिध्यादृष्टि अति प्रबल मोहयीय कर्म के उदय से अर्हत् प्रणीत जीवादि तत्त्वों पर विपरीत दृष्टि रखता है, फिर भी वह जिन तत्व-तत्त्वांशों पर अधिपरीत दृष्टि रखता है, उस अपेक्षा से मिध्यादृष्टि का प्रथम गुणस्थान है —— यथा मेघ के आवरण होने पर भी सूर्य-चन्द्र की प्रभा का अस्तित्व कुछ
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न कुछ रहता ही है, उसी प्रकार अभव्य निगोद आदि जीवों के भो ) मिध्यादृष्टि के कुछ न कुछ मोहनीय आदि कर्मों का क्षयोपशम रहता ही है । आगे कर्मग्रन्थ में देवेन्द्रसूरि ने कहा है
यद्येवं ततः कथमसौ मिध्यादृष्टिरेव ? मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्त्यपेक्षया अन्ततोनिगोदावस्थायामपि तथाभूताऽव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्यपेक्षया वा सम्यग्दृष्टित्वादपि नैव दोषः यतो भगवदत्प्रणीत सकलमपि द्वादशांगार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गदितमेकमप्यक्षरं न रोचयति तदानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते ।
- कर्मग्रन्थ भाग २ | पृ० ६८ अर्थात् यह कहना असंगत नहीं है कि मिध्यादृष्टि में मनुष्य, पशु आदि को जानने की अविपरीत दृष्टि होती है । यहाँ तक कि निगोद अवस्था में भी अव्यक्त स्पर्शमात्र अविपरीत दृष्टि होती है । उस अपेक्षा से वह सम्यग्यदृष्टि है, तथापि भगवद्- अर्हत् प्रणीत सकल द्वादशांगी अर्थ के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता हुआ यदि उसमें से एक भी अक्षर को सम्यग् नहीं श्रद्धता है तब भी उसे मिथ्यादृष्टि कहा गया है ।
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