________________
( ४५ ) तद्गतमेकमप्यक्षरं न रोचयति तदानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सर्वज्ञे प्रत्यनाशात्, उक्त च -
सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्या दृष्टिः सूत्र हि न प्रमाणं जिनाभिहितम् ।
-प्रवचनसारोद्धार गा १३०२। टीका अर्थात गुणस्थान का प्रतिपादन - गुणों की अपेक्षा से किया गया है । सब जीवों में आत्मा की उज्ज्वलता प्राप्त होती है, चाहे वह आंशिक रूप में भी क्यों न हो। यद्यपि मिथ्यादृष्टि मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण विपरीत दृष्टि रखता है फिर भी वह जिन तत्त्व, तत्त्वांशों पर अविपरोत दृष्टि रखता है उस अपेक्षा से वह सम्यग दृष्टि की बानगी रूप है तथापि अर्हत् प्ररुपित आगमों में पूर्ण श्रद्धा रखता हुआ भी यदि उस में एक भी अक्षर को विपरीत श्रद्धा है तो भगवान ने उसे मियादृष्टि कहा है
जैन दर्शन के महान चिंतक मुनिश्री नथमल जी ने 'जीव-अजीव' में कहा है -
मिथ्यादृष्टि अर्थात् तत्त्व श्रद्धान से विपरीत है जिसकी दृष्टि वह है मिथ्यादृस्टि, उसका गुणस्थान है -मिथ्यादृष्टि गुणस्थान।
मिथ्यात्वी की क्षायोपशमिक दृष्टि का नाम भी मिथ्यादृष्टि है उसका गुणस्थान भी मियादृष्टि गुणस्थान है ।
ये दोनों मिथ्यादृष्टि गुणस्थान की परिभाषाएँ है। पहली परिभाषा में गुणी ( व्यक्ति ) को लक्ष्य कर, उसमें पाये जाने वाले गुण को गुणस्थान कहा है और दूसरी परिभाषा में व्यक्ति को गौण मानकर केवल क्षायोपशमिक दृष्टि को ही गुणस्थान कहा है । इन दोनों का अर्थ एक है, निरूपण के प्रकार दो हैंपहलो परिभाषा के अनुसार विपरीत दृष्टि वाले पुरुष में जो क्षायोपशामिक गुण है वह गुणस्थान हैं और दूसरी परिभाषा के अनुसार दृष्टि-श्रद्धा क्षायोपशमिक गुण है, वह मिथ्यात्वयुक्त पुरुष में होने के कारण मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहलाता है । कर्मग्रन्थ में देवेन्द्रसूरि ने कहा है :
ननु यदि मिथ्यादृष्टिः ततः कथं तस्य गुणस्थानसंभव ? गुणा हि ज्ञानादिरूपाः, तत् कथं ते दृष्टौ विपर्यस्तायां भवेयुः ? इति, उच्यते - इह
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org