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मिथ्यात्वी उपयुक्त चार ध्यानों को संयति-साधु के पास समझ कर ध्यान का अभ्यास करे।
भगवान महावीर ने पद्मस्थावस्था में गोशालक के साथ छह वर्ष रहे तथा अनित्यचिन्तवना भी की। कहा है -
तएणं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं पणियभूमीए छव्यासाई लाभं, अलाभ, सुहं, दुक्खं सक्कारमसक्कारं पच्चणुब्भवमाणे अणिच्चजागरियं विहरित्था ।
-भगवती श १५, सू ५६ अर्थात् भगवान महावीर मंखलिपुत्र गोशालक के साथ प्रणोतभूमि (मनोज्ञ भूमि-भांड विश्राम स्थान ) में लाभ, अलाभ सुख-दुःख, सत्कार-असत्कार का अनुभव करते हुए और अनित्य चिंतन ( अनित्य भावना ) करते हुए छः वर्ष तक विचरे।
अस्तु भगवान छद्मस्थावस्था में अनित्य भावना द्वारा भावित रहे । अनित्य भावना-छद्मस्थावस्था में ही हो सकती है, केवलो अवस्था में नहीं। चकि अनित्य भावना-धर्म ध्यान की चार भावनाओं में से एक भावना है । केवलो के योगनिरोध के समय शुक्ल ध्यान होता है, धर्मध्यान नहीं। अनित्य भावना प्रथम गुणस्थान से बारह गुणस्थान तक होती है। वैश्यायन बालतपस्वी ने धर्मध्यान द्वारा आत्म-चिंतन किया-कहा है -
वेशिकासूनुरित्यासीत्स नाम्ना वैशिकायनः । तदैवविषयोद्विग्न आददे तापस व्रतम् ।। स्वशास्त्राध्ययनपरः स्वधर्मकुशलः क्रमात् । कूर्मग्रामे स आगच्छच्छवीरागमनाग्रतः ॥ तद्वहिश्चोर्ध्वदोदंडः सूर्यमण्डलदत्तदृक् । लम्बमानजटाभारो न्यग्रोधद्र रिवस्थिरः ॥ निसर्गतो विनीतात्मा दयादाक्षिण्यवान् शमी। आतापनां स मध्याह्न धर्मध्यानस्थितोऽकरोत् ॥
-त्रिश्लाका• पर्व १०१ सर्ग ४। श्लोक १०६ से ११२
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