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________________ [ ४१ ] है। बारह अनुप्रेक्षाएँ आदि ध्यान करने योग्य हैं।' अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन करने से मिथ्यात्वी धर्मध्यान में सुभावित चित्त वाला होता है। ध्यान के द्वारा वह 'भावितात्मा अणगार' के पद को प्राप्त कर सकता है। धर्मध्यान में विशुद्ध लेश्या होती है । कहा है एदम्हि धम्मजमाणे पीय-पउम सुक्कलेस्साओ तिणि चेच होति, मंद-मंदयर-मंदतमकसाएसु एदस्स माणस्स संभवुलंभादो। एत्थ गाहा होति कमविसुद्धाओ लेस्साओ पीय-पउम-सुक्काओ। धम्ममाणोवगयस्स तिव्व-मंदादिभेयाओ। -~~- षटखंडागम ५,४,२६ । पु १३ । पृ. ७६ अर्थात् धर्मध्यान को प्राप्त हुए जीव के तोत्र-मंदादि भेदों को लिए हुए क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या होती है। धर्मध्यान मोक्ष का हेतु है । कहा है परे मोक्ष हेतू -तत्त्वार्थ .. भाष्य-धर्मशुक्ले मोक्षहेतू भवतः । अर्थात धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण है। आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव में धर्मध्यान के चार भेदों का कथन किया है पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्दा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करः॥ - ज्ञानार्णव प्रकरण ३७.श्लोक १ अर्थात् ध्यान (धर्मध्यान) के चार प्रकार है-यथा(१) पिण्डस्थ-पार्थिव आग्नेयी आदि पाँच धारणओं का एकाग्रता से चिंतन करना। (२) पदस्थ-किसी पद के आश्रित होकर मन को एकाग्र करना । (३) रूपस्थ –अरिहंत भगवान की शांत दशा को स्थापित करके स्थिर चित्त से उनका ध्यान करना । (४) रूपातीत-रूपरहित निरंजन निर्मल सिद्ध भगवान का आलंबन लेकर उसके साथ आत्मा की एकता का चिंतन करना। (१) षटकंडागम ५, ४।२६। पु १३॥ पृ० ७. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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