________________
[ ४० ] गा० ३१, ३२ में शुक्ललेश्या के लक्षण में धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान-दोनों ध्यानों का उल्लेख मिलता है__ अट्टारूपाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि मायए xxx सुक्कलेसं तु परिणामे।
अर्थात् आत-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्मध्यान या शुक्लध्यान को ध्यावित करना-शुक्ललेश्या का लक्षण हैं । यह निर्विवाद है कि शुक्लध्यान-संयती । मुनि में ही होता है। जैसा कि युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने जैन सिद्धांत दीपिका में कहा है -
"धर्मध्यानम् -- एतच्च आद्वादशगुणस्थानात् ।
xxx शुक्लध्यानम-आद्यद्वयं सप्तमगुणस्थानाद् द्वादशान्तं भवति । शेषद्वयं च केवलिनो योनिरोधावसरे।"
-प्रकाश ५ अर्थात धर्मध्यान बारहवे गुणस्थान तक-पहले से बारहवें गुणस्थान तक होता है। शुक्लध्यान के चार भेद है । उनमें से प्रथम के दो भेद सातवें गुगस्थान से बारहवें गुणस्थान तक होते हैं और शेष दो केवलज्ञानी के योगनिरोध के समय-तेरहवें और चौदहवे गुणस्थान में होते हैं। अत: मिथ्यात्वी के प्रशस्त अध्यवसाय, शु भयोग, विशुद्धलेश्या और धर्मध्यान भी होता है। धर्मध्यान-तप-निर्जरा का भेद हैं।
आगमों में कहा है कि कतिपय मिथ्यात्वी शुभ ध्यानादि के द्वारा इसी भव में सम्यक्त्व को प्राप्त कर, भाव संयम को ग्रहणकर केवलज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं । आचार्य हेमचंद्र ने कहा है
शुभध्यानं हि कामधूक . -त्रिषष्टिश्लाकापुरुषचरित्र पर्व १०सर्ग ३॥ श्लो ४६६ उत्त० अर्थात् शुभध्यान कामधेनू की तरह सर्व मनोरथों की पूर्ति करने वाला है। अतः मिथ्यात्वी शुभध्यान करने का प्रयास फरे ।
यह लोक ध्यान के आलम्बनों से भरा हुआ है । ध्यान में मन लगाने वाला मिथ्यात्वी मन से जिस वस्तु को देखता है वह वस्तु ध्यान का आलम्बन होती
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org