________________
। ३६ ] धम्मस्स णं माणस्य चत्तारि अणुप्पेहाओ पन्नताओ, तंजहाअणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, एगत्ताणप्पेहा, संसाराणुप्पेहा।
--उववाई सूत्र ४३ अर्थात् धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षा-भावना कही गई है- यथा, १. अनित्यानुप्रेक्षा-संसार की अनित्यता का विचार करना, २. अशरणानुपेक्षासंसार में धर्म को छोड़कर कोई शरण देने वाला नहीं है, ऐसा चिंतन करना १. एकत्वानुप्रेक्षा-जोव अकेला आता है, अकेला जाता है-ऐसा चिंतन करना और ४. संसारानुप्रेक्षा-जीव संसार में कर्मों के द्वारा परिभ्रमण करता है- ऐसा चिंतन करना।
भगवती सूत्र में तामलीतापस ने प्रथम गुण स्थान की अवस्था में अनित्यचिन्तवना-अनित्य भावना का चिंतन किया।
"तए णं तस्स ताम लिस्स बालतवस्सिस्स अण्णया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालं समयंसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेया रूवे अज्झथिए चिन्तिए जाव समुप्पज्जित्था ।
-भगवती श० ३। उ० ११ प्र३६ तामली तापस ( बालतपस्वी ) ने ६० हजार वर्ष तक बेले-बेले (छट्ठ-छट्ठ भत्त तप) की तपस्या को-उससे उसके बहुत कर्मों की निर्जरा हुई । इस पाठ में कहा गया कि तामली तापस-बालतपस्वी ने एक समय मध्य रात्रि में अनित्य जागरण-अनित्य चितवना ( धर्मध्यान का एक भेद ) का चिंतन किया-इस प्रकार का अध्यात्म उत्पन्न हुआ । अनित्य चिंतन करना अर्थात् संसार अनित्य है-ऐसा चिंतन करना निरवद्यानुष्ठान से कर्मों का क्षय कर, अंत में सम्यक्त्व को प्राप्त कर दूसरे देवलोक में-वैमानिक देव में इन्द्र (ईशानेन्द्र) रूप में उत्पन्न हुआ। इसके बाद वह एक मनुष्य के भव में उत्पन्न होकर सर्व कर्मों का क्षय करेगा। यदि वह बाल तपस्वी अवस्था में निरवद्यानुष्ठान -तपस्यादि का अवलंबन नहीं लेता तो उसके कर्म-क्षय नहीं होते -कर्मों की निर्जरा के बिना सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर पाता।
प्रथम गुणस्थान में ग्रन्थों में भी धर्म-ध्यान का उल्लेख मिलता है। आगमों में तो अनेक स्थल पर धर्मध्यान का उललेख मिलता है। उत्तराध्यन अ० ३४
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org