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[ ३८ ] उत्तराध्ययन में कहा हैलद्ध ण वि आरियत्तणं, अहीण पंचिंदियया हु दुल्लहा । विगलिंदियया हु दीसई, समयं गोयमा! मापमायए ॥
--उत्तरा० अ० १०१७ अर्थात् मनुष्य भव और आर्य देश में जन्म प्राप्त करके भी पांचों इन्द्रियों का पूर्ण होना, निश्चय ही दुर्लभ है क्योंकि बहुत से मनुष्यों में भी इन्द्रियों की विकलता देखी जाती है अतः वे धर्माचरण करने में असमर्थ रहते हैं अतः हे गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद मत कर ।
उत्तम धर्म का श्रवण प्राप्त करके भी उस पर श्रद्धा और भी कठिन है क्योंकि अनादि कालीन अभ्यास वश मिथ्यात्व का सेवन करने वाले बहुत से मनुष्य दिखाई देते हैं।'
अत: मिथ्यात्वी अनित्यादि भावना के द्वारा अन्तर्जगत का द्वार खोले । अथवा मिथ्यात्वी को सत्व-प्राणी मात्र के विषय में मैत्री भावना, गुणाधिकों के विषय में प्रमोद भावना, क्लिश्यमानों के विषय में कारुण्य भावना और अविनेय (तीव्रमोही, गुणशून्य दुष्ट परिणाम वाले) जीवों के विषय में मध्यस्थ्य भावना रखनी चाहिये ।
भावना के द्वारा मिथ्यात्वी भवग्रन्थि को छेद कर जल्द ही सम्यगदर्शनी हो जाता है । बाल तपस्वी तामली तापस ने-अनित्य जागरणा-अनित्य भावना द्वारा कर्मग्रन्थि का भेदन किया । २
५: मिथ्यात्वी और ध्यान मिथ्यात्वी के चार ध्यान-( आतध्यान, रोद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान ) में से प्रथय तीन ध्यान का विवेचन कई स्थल पर मिलता है। धर्मध्यान की भावना में 'अनित्यचिंतन' भी एक भावना है(१) लद्ध ण वि उत्तमं सुई, सहहणा पुणरावि दुल्लहा । मिच्छत्तणिसेवए जणे xxx।
-उत्त० १०१६ (२) भगवती श ३ । उ १ । प्र १७ ॥
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