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________________ । ४३ ] अर्थात् वेशिका का पुत्र वेशिकायन नाम प्रसिद्ध हुआ। उसने अपनी माता को भी धर्ममार्ग में स्थापित किया। कालान्तर में विषय से उद्विग्न होकर तापस व्रत ग्रहण किया। स्वयं शास्त्र के अध्ययन में तत्पर और स्वधर्म में कुशल विहरण करता हुआ-भगवान महावीर के आगमन के पूर्व कूर्मग्राम में आया। उस ग्राम के बाहर मध्याह्न समय में ऊंचे हाथ कर, सूर्यमण्डल के सम्मुख दृष्टि रखकर, लंबमान जटा रखकर स्थिर था। स्वभाव से विनीत, दया दाक्षिण्य से युक्त और समतावान वैशिकायन धर्मध्यान में तत्पर मध्याह्न समय में आतापना लेता था। अत: प्रथम गुणस्थान में धर्मध्यान होता है। ६: मिथ्यात्वी और गुणस्थान आत्मा के क्रमिक विकास की अवस्था का नाम-गुणस्थान हैं। गुणस्थान का निरुपण जीवों के गुण की अपेक्षा किया गया है । समवायांग सूत्र में कहा है कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहामिच्छादिही सासायणसम्मदिट्ठीxxx। -~-समवायांग समनाय १४, सू ५ टीका-'कम्मविसोही' त्यादि कर्म विशोधीमार्गणां प्रतीत्यज्ञानावरणादिकर्मविशुद्धिगवेषणामाश्रित्य चतुर्दशजीवस्थानानिजीवभेदाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्यस्यासौ मिथ्यादृष्टि:-उदितमिथ्यात्वमोहनीयविशेषः । अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि कर्म विशुद्धि की अपेक्षा जीवस्थान (गुण. स्थान) चतुर्दश कहे गये हैं। जिसमें मिथ्यादृष्टि का प्रथम गुणस्थान है । मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय विशेष से जोव विपरीत श्रद्धा करता है । मिथ्यात्वी में ज्ञानावरणीयादि कर्मो का क्षयोपशम पाया जाता है उस अपेक्षा से उसका गुणस्थान है। सूयगडांग सूत्र के टोकाकार आचार्य शीलांक ने कहामिथ्याविपरीता दृष्टिर्येषान्ते मिथ्यादृष्टयः । - -सूय० १।२।२रागा ३२॥ टीका १-भगवती श १५ . २-षट. खं ३। सू३।पुप पृ. २ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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