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________________ [ ३६ ] "पज्जत्ताअसणिपंचिदियतिरिक्ख जोणिए x x x । तेसि णं भंते ! जीवा कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ गोयमा ! तिष्णि लेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजा - कण्ड्लेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्खा । तेषणं भंते! जीवा कि. समदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी ? गोयमा ! णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी । सिणं भंते ! जीवाणं केवइया अज्मवस्राणा पण्णत्ता ! गोयमा ! असंखेज्जा अमवसाणा पन्नत्ता ! तेणं भन्ते ! किं पसत्था, अप्पसत्था ? गोयमा । पत्था वि, अप्पसत्था वि । -भग० श २४| उ १ १२ १३, २४, २५ अर्थात पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि भी नहीं होते हैं, कृष्णलेदया, नील लेश्या और कापोतलेश्या (तीन अशुभलेश्या) होती है । उनके अध्यवसाय स्थान असंख्यात है वे अध्यवसाय प्रशस्त भी होते है, अप्रशस्त भी । अस्तु मिथ्यात्वी के प्रशस्त अध्यवसाय भी होते हैं तथा अप्रशस्त अध्यवसाय भी । ४ : मिध्यात्वी और भावना ( अनुप्रेक्षा ) मोक्षाभिलाषी व्यक्ति के लिये आवश्यक है कि वह भावना के द्वारा ज्ञान, दर्शन- चारित्र की वृद्धि करे । अनित्यादि अनुप्रेक्षाओं में जब बार बार चिन्तन धारा चालू रहती है तब वे ज्ञान रूप है, पर जब उनमें एकाग्र चिंता होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती तब उसे धर्म ध्यान कहते हैं । कहा है अनित्यादिविषय चितनं यदा ज्ञानं तदा अनुप्रेक्षा व्यपदेशो भवति, यदा तत्र काचिंता निरोधस्तदा धर्मध्यानम् । - राजवार्तिक अ६ ३७ अर्थात् अनित्यादि भावनाओं में जब विषय का चिन्तन रहता है तब वे ज्ञान रूप है तथा जब एकाग्र चित्त हो जाता है तब उसे धर्म ध्यान कहते हैं । अनुप्रेक्षा - भावना के निम्नलिखित बारह प्रकार हैं ' १ अनित्याशरणसंसारकत्वाभ्यत्वाशुचित्वा सवसं वरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यात तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा - तत्त्वार्थ १७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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