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[ ३५ ] होता है उस समय शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या के साथ प्रशस्त-शुभ अध्यवसाय भी होते हैं । कहा हैं ---
(असोच्चाणं भंते !) xxx अण्णया कयावि सुभेणं, अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुझमाणीहिं xxx विभंगे नामं अण्णाणे समुप्पज्जइ।
-भग० श६ । उ ३१ । प्र३३ अर्थात बालतपस्वी को (मिथ्यात्वी का सप) किसी दिन शुभ अध्यवसाय, शुभपरिणाम और विशुद्ध लेश्या आदि के कारण विभंग अज्ञान उत्पन्न होता है ।
मिथ्यात्वी जब सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तब उसे विशुद्ध लेश्या और शुभ. परिणाम के साथ शुभ अध्यवसाय भी होते हैं।
अस्तु मिथ्यात्वी के प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते हैं। सभी दंडकों के जीवों में सम्यगदृष्टि की अपेक्षा मिथ्याडष्टि जीव अधिक होते होते हैं । सम्यग्दृष्टि जीवों को जब अवधिशान या मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न होता हैं उस समय शुभपरिणाम और विशुद्ध लेश्या के साथ शुभ अध्यवसाय भी होते हैं । भगवान महावीर को छद्मस्थावस्था के पांचवें चतुर्मास में भद्दिलपुरनगर में शुभअध्यवसाय आदि से लोकप्रमाण अवधिज्ञान समुत्पन्न हुआ।२
सम्यग मिथ्यादृष्टि जीवों के भी प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते हैं।
उपयुक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि मिथ्यात्वी, सम्यक्त्वी और सम्यगमिथ्यात्वी में प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते हैं। ____ यह ध्यानमें रहे कि मिथ्यात्वी के लेक्ष्या-अशुभ होते हुए भी अध्यवसाय प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों प्रकार के हो सकते हैं। चूंकि लेण्या से अध्यवसाय सूक्ष्म है-उदाहरणत:-पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में तीन अशुभ लेश्या होती हैं लेकिन अध्यवसाय-प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों प्रकार के हो सकते हैं -
(१) भगवती श २४।उ १ से २४ (२) शुभैरव्यवसायविशुद्ध यमानस्य लोकप्रमाणोऽवधिरभूत् ।
बाव. निगा ४८६ टीका
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