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( ३४ ) टीका-मलयगिरि-अध्यवसायचिंतायां प्रत्येक नैरयिकादीनाम: संख्येयान्यध्यवसानानि।
अर्थात् नैरयिकों के असंख्यात अध्यवसाय होते हैं क्योंकि उनके प्रत्तिसमय भिन्न-भिन्न अध्यवसाय होते है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक देवों के असंख्यात अध्यवासाय होते हैं । एकेन्द्रियजीव नियमत: मिथ्यादृष्टि हो होते हैं उनके भी प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते हैं । यद्यपि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों में सास्वादान सम्यक्त्व होती है लेकिन वे मिथ्यात्व के सम्मुख होने से आगम में अपेक्षा भेद से उन्हें मिथ्यात्व को प्राप्त करने वाले कहे है लेकिन सभ्यगमिथ्यात्व व सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले नहीं कहे है।
नेरइयाणं भंते ! किं सम्मत्ताभिगमी, मिच्छत्तामिगमी, सम्मामिच्छत्तामिगमी ? गोयमा! सम्मत्ताभिगमी वि मिच्छत्ताभिगमी वि सम्मामिच्छत्तामिगमी वि, एवं जाव वेमाणिया । नवरं एगिदियविगलिंदिया णो सम्मत्ताभिगमी, मिच्छत्तामिगमी, नो सम्मामिच्छत्ताभिगमी।
-प्रज्ञापना पद ३४ासू २०४६.५० टीका-xxx नवरमेकेन्द्रियाणां विकलेन्द्रियाणां केषांचित् सासादनसम्यक्त्वमपि लभ्यते तथापि ते मिथ्यात्वाभिमुखा इति सदपि तन्न न विवक्षितं ।
अर्थात् एकेन्द्रियों तथा विकलेन्द्रियों कों बाद होकर नैरपिकों से वैमानिक देवोंतक के दंडक-सम्यक्त्वा धिगामी ( सम्यक्त्वकी प्राप्तिवाले ) भी होते हैं, मिथ्यात्वाधिगामी भी होते हैं, सम्यग मिथ्यात्वाधिगामी भी होते हैं ! एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीव मिथ्यात्वाधिगामी होते हैं लेकिन सम्यक्त्वाधिगामो तथा सम्यगमिष्यात्वाधिगामी नहीं होते हैं। लेकिन अध्यवसाय-एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में प्रशस्त भी होते हैं।
जब मिथ्यात्वी को ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से विभंग ज्ञान उत्पन्न
(१) भग० श २४
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