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। ३३ ] अस्तु इनसे विपरीत जो क्रिया होती है वह शुभ कही जातो है-अहिंसा, सत्य, अचोर्य, ब्रह्मचर्य आदि के नियम की प्रतिपालना ।
मिथ्यात्वी के दोनों प्रकार के शुभ और असुभ योग होते हैं । शुभयोग से मिथ्यात्वी के पुण्य का आस्रव होता है । कहा है - शुभो योगः पुण्यास्थास्रवो भवति ।
तत्त्वार्थ. अहासू ३-भाष्य अर्थात् शुभयोग पुण्य का आनव है। मिथ्यात्वी उस पुण्यबन्ध के कारण मनुष्यगति या देवगति में उत्पन्न होता है । इसके विपरीत पापबन्ध के कारण नरक गति और तिर्यंचगति में उत्पन्न होता है।
३ : मिथ्यात्वी और अध्यवसाय अध्यवसाय ---आत्मा का एक सूक्ष्म परिणाम है जो प्रशस्त--अप्रशस्त दोनों का प्रकार होता है।' प्रत्येक के असंख्यात असंख्यात प्रकार होते हैं चौबीस ही दंडकों में -प्रत्येक दंडक में दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते हैं। उदाहरणतः-असंज्ञो तियंच पंचेन्द्रिय में तोन अप्रशस्त लेश्या होती है, लेकिन अध्यवसाय-प्रशस्त -अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते है । अतः कहा जा सकता है कि मिथ्यादृष्टि के प्रशस्त अध्यवसाय से कर्म निर्जरा होती है। कहा हैसूक्ष्मेषु आत्मनः परिणाम विशेषेषु ।
अभिधान० भाग १ पृ० २१२ अर्थात् अध्यवसाय आत्मा का सूक्ष्म परिणाम है। पृथ्वीकायिक आदि चौबीस ही दंडकों में प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते है। कहा है
नेरइयाणं भन्ते! केवड्या अज्झवसाणा पन्नत्ता ? गोयमा! असंखेज्जा अज्मवसाणा पन्नत्ता । ते णं भन्ते ! किंपसत्था, अप्पसत्था ? गोयमा! पसत्थावि अप्पसत्थावि । एवंजाव वेमाणिया।
-प्रज्ञापना पद ३४॥सू. २०४७,४८
(१) आया० श्रु २अ १। उ २ (२) भग० श २४
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