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( ३२ ) अर्थात् ओघतः मिथ्यादृष्टि के आहारक काययोग, आहारक मिश्रकाय योग को बाद देकर तेरह योग होते हैं। गति की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि में योगमार्गणा इस प्रकार है
१-नरकगति तथा देवगति में-ग्यारह योग होते हैं-चारमन के योग, चार वचन के योग तथा तीन काय योग (वैक्रिय शरीरकाय प्रयोग, वैक्रिय मिश्र शरीरकाय प्रयोग, कार्मणशरीरकाय प्रयोग )।
२-तिर्य'च गति तथा मनुष्यगति में-औधिक मिध्यादृष्टि की तरह तेरह योग मिलते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में कहा हैकायवाङ मनः कर्मयोगः
___ तत्त्वार्थ सूत्र म० ६ । सू १ __ भाष्य-कायिक कर्म वाचिकं कर्म मानसं कम इत्येष त्रिविधो योगो भवति । स एकशो द्विविधः। शुभाश्चाशुभश्च। तत्राशुभो हिंसास्तेयाब्रह्मादीनि कायिका, सावधानतपरुषपिशुनादीनि वाचिका, अभिध्याव्यापादेासूयादीनि मानसः । अतोविपरीतः शुभ इति ।
अर्थात् शरीर, वचन और मन के द्वारा जो कर्म क्रिया होती है, उसको योग कहते हैं। अतएव योग तीन प्रकार का होता है-कायिकक्रियारूप, पाचिकक्रियारूप और मानसक्रियारूप। तीनों योगों के दो-दो भेद हैशुभयोग और अशुभयोग ।
हिंसादि में प्रवृत्ति करना आदि अशुभकायिक कर्म-अशुभ योग है। पापमय या पापोत्पादक वचन बोलना, मिथ्या भाषण करना, मर्मभेदी आदि कठोर वचन बोलना, किसी की चुगली खाना आदि अशुभ वाचिक कर्म-अशुभ पचन योग है। दुर्ध्यान या खोटा चिंतन, किसी के मरने मारने का विचार, किसी को लाभ आदि होता हा देखकर मन में ईष्यों करना, किसी के महान् बार उत्तम गुणों में भी दोष प्रकट करने का विचार करना आदि अशुभ मानसकर्म-अशुभ मनोयोग है।
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