SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २ ] पंचसंग्रह में चन्द्रर्षि महत्तर ने कहाxxx । छल्लेसा जाव सम्मोत्ति । -पंचसंग्रह भाग १, सू ३१ टीका-'सम्मोत्ति' अविरतसम्यग्दृष्टिस्तावत षडपिलेश्या भवंति । अर्थात प्रथम गुणस्थान से चतुर्थ गुणस्थान तक लेश्या छहों होती है अतः मिथ्यदृष्टि में छहों लेण्या होती है। षट खंडागम में अणाहारिक मिथ्यादृष्टि में भी छहों भाव लेश्या का उल्लेख मिलता है "अणाहारि-मिच्छाइट्ठीणं भण्णमाणेअत्थि xxx । दव्वेण सुक्कलेस्सा, भावेण छलेस्साओ। -षट. पु २ । पृ० ५२ अर्थात् अनाहारिक मिथ्यादृष्टि में द्रव्य की अपेक्षा शुक्सलेश्या तथा भाव की अपेक्षा छहों लेश्यायें होती है। फिर षटखंडागम के टोकाकार आचार्य वीरसेन ने कहा है तेसिं चेव मिच्छाइट्ठीणं पज्जत्तोघे भण्णमाणे अत्थि xxx दव्वभावेहि छल्लेस्साओ xxxतेसिं चेव अपज्जत्तोघे भण्णमाणेअत्थिxxx दव्वेण काउ सुक्कलेस्साओ, भावेण छलेस्साओ xxx --षटखंडागम १,१॥ पु० २ । पृ० ४२४,२५ अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवों के अपर्याप्तकाल में द्रव्य और भाव से छहों लेश्याएं होती है तथा अपर्याप्तकाल में द्रव्य को अपेक्षा कापोत और शुक्ल, भाव की अपेक्षा छहों लेश्याएं होती है। आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि ने कहा लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छाइटिप्पहुडिजाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति ओघं ॥ १६२ ॥ तेउलेस्सिएसु मिच्छाइछि दवपमाणेण केवडिया, जोइसियदेवहि सादिरेयं ॥ १६३ ॥ xxx पम्मलेस्सिएसु मिच्छाडि दुव्वपमाणेण केवडिया, सण्णिपचे. दियतिरिक्खजोणिणीणं संखेज्जदिमागो॥ १६६ ॥ xxx v ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy