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[ ३० ] सुक्कलेस्सिएसु मिच्छाइट्ठिप्पहुडिजाव संजदासजदा त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, पलिदोवमस्स असंखेन्जदिमागो ॥ १६६ ॥
-षटखंडागम १,२। सू १६२,१६३,१६६,१६६। पु ३ अर्थात् लेश्या मार्गणा के अनुवाद से प्रथम तीन अप्रशस्त लेल्या मिथ्यादृष्टि जीव ओघ-प्ररुपणा की तरह अनन्त है, तेजोलेशी मिथ्यादृष्टि जीव ज्योतिषी देवों से कुछ अधिक है, पद्मलेशी मिथ्यादृष्टि जीव संज्ञी पंचेन्द्रियतियंच योनिमती जीवों के संख्यात भाग प्रमाण है तथा शुक्ललेशी मिथ्यादृष्टि जीव पल्योपम के असंख्यात भाग प्रमाण है ।
अस्तु मिथ्यात्वी का प्रथम गुणस्थान है। प्रथम गणस्थान में कृष्णादि छहों लेश्यायें होती है । सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने कहा है
लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतसम्यग्दृष्ट्यान्तानां सामान्योक्त क्षेत्रम्। तेजःपद्मलेश्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां लोकस्यासंख्येयभागः। शुक्ललेश्यानां मिथ्या. दृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां लोकस्यासंख्येयभागः ।
-तत्त्व० अ १ । सू८ अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कृष्ण, नील और कापोतलेश्या-क्षेत्र की अपेक्षा सामान्योक्त क्षेत्र अर्थात् सर्वलोक में है । तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्याक्षेत्र की अपेक्षा लोक के असंख्यात भाग में है। षटखंडागम के टीकाकार आचार्य वीरसेन ने कहा है___ "सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव संजदासंजदेहि केवडियं खेत्त पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो।
-षट० ख० १॥ भा० ४ । सू० १६२ । पु० ४ । पृ. २९६ अर्थात् शुक्ल लेशी मिथ्यादृष्टि जोवों ने भूतकाल की अपेक्षा लोक के असंख्यात भाग का स्पर्शन किया है।
. अत: उपयुक्त प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि मिथ्यात्वी के छहों भाव लेश्यायें होती है।
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