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[ २७ ] प्रतिबिम्ब्यवस्तुगत आकारः प्रतिभाग एव प्रतिभागमात्रा तया, अत्रापि मात्राशब्दः प्रतिबिम्बातिरिक्त परिणामान्तरव्युदासार्थः स्यात् कृष्णलेश्या नीललेश्यारूपतया, परमार्थतः पुनः कृष्णलेश्यैव नो खलु नीललेश्या सा, स्वस्वरूपापरित्यागात्, न खल्वादर्शादयो जपाकुसुमादिसन्निधानतस्तत्प्रतिविम्बमात्रामादधाना नादर्शादय इति परिभावनीयमेतत्, केवलं मा कृष्णलेश्या सत्र-स्वस्वरूपे गता-अवस्थिता सती उत्वष्कते तदाकारभावमात्रधारणतस्तत्प्रतिबिम्बमात्रधारणतो वोत्सप्र्पतीत्यर्थः, कृष्णलेश्यातो हि नीललेश्या विशुद्धा ततस्तदाकारभावं तत्प्रतिबिम्बमात्रं वा दधाना सती मनाक विशुद्धा भवतीत्युत्सर्पतीति व्यपदिश्यते ।
-पण्ण पद १७उसू० १२५२ टीका अर्थात् यदि कृष्णलेश्या नीललेश्या में परिणत नहीं होती है वो सातवीं नरक के नैरयिकों को सम्यक्त्व की प्राप्ति किस प्रकार होती है । क्योंकि सम्यक्त्व जिनके तेजोलेश्यादि शुभलेश्या का परिणाम होता है उनके ही होती है और सातवीं नरक में कृष्णलेश्या होती है तथा भाव की परावृत्ति से देव तथा नारकी के भी छह लेश्या होती है, यह वाक्य कैसे घटित होगा। क्योंकि अन्य लेश्या द्रव्य के संयोग से तद्रूप परिणमन संभव नहीं है तो भाव की परावृत्ति भी नहीं हो सकती है।
उत्तर में कहा गया है कि मात्र आकार भाव से-प्रतिबिम्ब भाव से कृष्णलेश्या नीलेश्या होती है, लेकिन वास्तविक रूप में तो कृष्णलेश्या ही है, नीलेश्या नहीं हुई है क्योंकि कृष्णलेश्या अपने स्वरूप को नहीं छोड़ती है जिस प्रकार आरीसा में किसी का प्रतिविम्ब पड़ने से वह उस रूप नहीं हो जाता है, लेकिन आरीसा ही रहता है। प्रतिबिम्ब वस्तु का प्रतिबिम्ब छाया जरूर उसमें दिखाई देती है।
ऐसे स्थल में जहां कृष्णलेश्या अपने स्वरूप में रहकर 'अवष्वकते, उत्ष्वष्कते' नीलेश्या के आकार भाव मात्र को धारण करने से या उसके प्रतिबिम्ब भाव मात्र को धारण करने से उत्सर्पण करती है-नीलेश्या को प्राप्त होती है । कुष्णलेश्या से नीललेश्या विशुद्ध है, उससे उसके आकार भाव मात्र को या प्रति
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