________________
[ २६ ] अर्थात् भाव की परावृत्ति होने से देव और नारकी के छः लेश्या होती है।
सातवी नरक के नारकी को अन्तरालकाल मैं सम्यक्त्व लाभ हो सकता है । यह सुनिश्चित है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति शुभपरिणाम, शुभ अध्यवसाय तथा विशुद्धमावलेश्या ( तेजो-पद्म-शुक्ललेपया ) के बिना नहीं हो सकती है। षटखंडागम के टीकाकार बाचार्य वीरसेन ने कहा है:
"एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी सत्तमाए पुढवीए किण्हलेस्साए सह उववण्णो। छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो होदूण सम्मत्त पडिवण्णो।
-षट० १, ५,२६०। पुस्तक ४। पृ० ४३० - अर्थात् मोहकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला कोई एक मिथ्यादृष्टि जोष सातवीं पृथ्वी ( नारकी ) में कृष्णलेश्या के साथ उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त होकर, विश्राम ले तथा विशुद्ध होकर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ।
प्रशापना सूत्र के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने कहा है -
स्वभावो यस्य कृष्णलेश्यास्वरूपस्य तत्तद्र पं तद्भावस्तदुरूपता तया एतदेव व्याचष्टे-न तद्वर्णतया न तद्गंधतया न तद्रसतया न तत्स्पर्शतया भूयो भूयः परिणमते, भगवानाह-हतेत्यादि, हन्त गौतम ! कृष्ण लेश्येत्यादि, तदेव ननु यदि न परिणमते तर्हि कथं सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्वलामा, स हि तेजोलेश्यादिपरिणामे भवति सप्तमनरकपृथिव्यां च कृष्णलेश्येति, कथं चैतत् वाक्यं घटते ? 'भावपरावत्तीए पुण सुरनेरइयाणं पि छल्लेस्सा' इति (भावपरावृत्तः पुनः सुरनैरयिकाणामपि षड्लेश्याः ) लेश्यान्तरद्रव्यसंपर्कतस्तद्रुपतया परिणामासंभवेन भावपरावृत्त रेवायोगात्, अतएव तद्विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह --'से केण?णं भंते !' इत्यादि, तत्र प्रश्नसूत्रं सुगमं निर्वचनसूत्रं-आकार : तच्यायामात्रां आकारस्य भावः-सत्ता आकारभावः स एव मात्रा आकारभावमात्रा तयाऽऽकारभावमात्रया मात्राशब्द आकारभावातिरिक्तपरिणामान्तरप्रतिपत्तिव्युदासार्थः, 'से' इति सा कृष्णलेश्या नीललेश्यारूपतया स्यात् यदिवा प्रतिभागः प्रतिबिम्बमादर्शादाविव विशिष्टः
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org