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[ २५ ] किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेस्खाओ।। . एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गई उववज्जइ ।। तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहिवि जीवो, सुग्गई उववज्जइ ॥
-गा ५६१५७ अर्थात् कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन अधर्मलेश्याएं हैं। इन लेश्याओं से जोव दुर्गति में उत्पन्न होता है। तेजो, पद्म और शुक्ल-ये तीन धर्मलेश्याएं हैं, इन लेश्याओं से जीव सुगति में उत्पन्न होता है। आगमों में अनेक स्थल पर उल्लेख मिलता है कि धर्मलेश्या की अवस्था में जीव यदि मरण को प्राप्त होता है तो वह नरक गति में नहीं जाता है। श्रीमजयाचार्य ने झीणी चर्चा में कहा है कि कृष्ण, नील, कापोत लेण्या से पापकर्म का बंधन होता है, अतः इन लेश्याओं को अधर्म लेश्या कहा गया है तथा तेजो, पद्म, शुक्ल लेल्या से कर्मो को निर्जरा होती है, अत: इन लेश्याओं को धर्मलेश्या कहा गया है। ____ आचारांग में (१।४।१ ) प्राणीमात्र को अहिंसा पालने का उपदेश दिया गया है ? उस अहिंसा के पालने का अधिकार क्या मिथ्यात्वी को नही दिया गया है ? कहने का तात्पर्य यह है कि आज्ञा के अन्तर्गत की क्रिया की बाराधना मिथ्यात्वी तथा सम्यक्त्वी दोनों कर सकते हैं।
सातवीं नरक में केवल मिथ्याडष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं-वे मिथ्याष्टि जीव या तो संज्ञी मनुष्य होते हैं, या संज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय (सिर्फ जलचर)। सम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा सम्यग्दृष्टि तिर्यच पहले से छठे नरक तक उत्पन्न हो सकते हैं ( यदि सभ्यगदृष्टि उत्पन्न होने के पूर्व मिध्याहष्टि अवस्था में नरक का बायुष्य बांध लिया हो) । यद्यपि आगमों में नरयिकों में कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याओं का कथन है। संभवतः यह कथन द्रव्यलेष्या की अपेक्षा हो । प्रज्ञापना सूत्र की टीका में कहा गया हैभावपरावत्तीए पुण सुरनेरइयाण वि छल्लेस्सा।
-पण्ण० ५० १७ । उ०५ । सू० १२५१ । टीका में उद्धत १-लेषा कोश, पृष्ठ १३
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