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द्वितीय अध्याय
१ : मिथ्यात्वी और लेश्या मिथ्यात्वी में कृष्णादि छओं लेश्याएं होती है। छः लेश्याओं में प्रथम तीन लेश्याएं (कृष्ण-नोल-कापोत ) अशुभ हैं तथा अंतिम तीन लेश्याएँ ( तेजो-पद्म शुक्ल ) शुभ हैं । आगमों में मिथ्यात्वी में शुभ लेश्याएं भी होती है ऐसा उल्लेख मिलता है।
कम प्रकृति में स्थाप्रवृत्ति करण आदि को प्राप्ति के पूर्व भी मिथ्यात्वी में तेजो-पद्म-शुक्ल लेश्या का उल्लेख मिलता है।
करणकालात् पूर्वमपि xxx तिसृणां विशुद्धानां लेश्यानामन्यतमस्या लेश्यायां वर्तमानो, जघन्येन तेजोलेश्यायां, मध्यमपरिणामेन पद्मलेश्यायां, उत्कृष्टपरिणामेन शुक्ललेश्यायां xxx।
-कर्मप्रकृति टोका अर्थात् करण कालकी प्राप्ति के पूर्व भी मिथ्यात्वी के तीन विशुद्ध लेश्या का प्रवर्तन हो सकता है । जघन्यतः तेजोलेश्या, मध्यम परिणाम से पद्मलेश्या तथा उत्कृष्टतः परिणाम से शुक्ललेश्या का प्रवर्तन होता है।
अश्रुत्वा' केवली के अधिकार में बाल तपस्वी अवस्था में प्रथम गुणस्थान में शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम तथा विशुद्धलेल्या का उल्लेख है। उपयुक्त तीनों निरवद्य अनुष्ठान हैं, उनके द्वारा कर्म की निर्जरा होती है। इसके विपरीत अशुभ अध्यवसाय, अशुभ परिणाम तथा अविशुद्धलेश्या-सावध अनुष्ठान है। यहाँ विशुद्धलेश्या का संबंध भावलेल्या के साथ जोड़ना चाहिए क्योंकि द्रव्यलेश्या-पुद्गल (षष्टस्पर्शी पुद्गल है । ) है; अतः भावलेल्या से कर्म कटते हैं, द्रव्यलेश्या से नहीं। उत्तराध्ययन सूत्र अ० १४ में कहा है
(१) भगवती श. ५। ३१ (२) भगवती १० १२ । उ ५
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