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[ २३ ] कारण सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और वहां पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर फिर सम्यक्त्व से पतित होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से जघन्य अन्तमुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थान का अंतरकाल हो जाता है। ___ यद्यपि षटखंडागममें मिथ्यादृष्टि का अंतरकाल उत्कृष्ट दो छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक कहा है। जो जीव एक बार भी मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेते हैं फिर पुन: मिथ्यात्व मोहनीयकर्म उदय से मिथ्यात्वी हो जाते हैं उनको प्रतिपाति सम्यगदृष्टि से भी अभिहित किया है उन जीवों का अंतरकाल भी जघन्य अंतमुहूर्त तथा उत्कृष्ट छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक का कहा गया है।
चूंकि सम्यग मिथ्यादृष्टि की स्थिति अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं होती है अतः कोई मिथ्यादृष्टि जीव सम्यगमिथ्यादृष्टि को प्राप्त करता है तो अंतमुहूत के अन्तरकाल के बाद मिथ्यादृष्टि हो सकता है। क्योंकि कोई सम्यग मिथ्यादृष्टि --अविपरीतश्रद्धा होने से सम्यगदृष्टि हो जाता है।' ___ सम्यगददि के दो भेद है---सादिअपर्यवसित तथा सादिअपर्यवसित । उनमें से सादिसांत सम्यदष्टि जघन्य अन्तमुहूर्त तक होता है क्योंकि उसके बाद उसे मिथ्यात्व आ सकता है, उत्कृष्टतः छियासठ सागरोपय से कुछ अधिक काल तक होता है, उसके बाद मिथ्यात्व आ सकता है।
अतः सिद्ध होता है कि मिथ्यात्वी का अंतरकाल जघन्य अंतरमुह तक तथा उत्कृष्टतः छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक हो सकता।
(१) सम्मामिच्छाट्ठिी पं० पुच्छा। गोयमा । जहणेणवि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्त।
प्रज्ञा० पद १६१३४५ (२) प्रज्ञापना पद १८। सू १३४३
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