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। २२ ] प्तेः उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तमेवानन्तं कालं द्विधा प्ररूपयतिकालतः क्षेत्रतश्च, तत्र कालतोऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीर्यावत् , क्षेत्रतोऽपा द्ध पुद्गलपरावर्त देशोनं xxxi
अर्थात् मिथ्यादृष्टि के तीन भेद होते हैं-यथा १ - अनादिअपर्यवसित -- जो कभी भी सभ्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकेंगे-अभव्यसिद्धिक जीव ।
२-अनादिसपर्यवसित --जिन्होंने अभी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं किया है, कालान्तर में प्राप्त करेंगे-जातिभव्यसिद्धिक जीव ।
३-जिन्होंने सम्यक्त्व को प्राप्त किया लेकिन फिर सम्यक्त्व से पतित होकर फिर मिथ्यात्व को प्राप्त किया है। वे मिथ्यादृष्टि जीव जघन्य अंतमूहूर्त, उत्कृष्टतः देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन के बाद अवश्य ही सम्यक्त्व को प्राप्त करेंगे -प्रतिपाती सम्यग्दृष्टि जीव ।
प्रतिपाती सम्यगदृष्टि जीव जो अभी मिथ्यात्वी है लेकिन वे निश्चय हो कालान्तर में सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त होंगे।
इन तीनों पुकार के मिथ्यादृष्टि जीवों में सबसे कम अभव्यसिद्धिक जीव है, उनसे प्रतिपाति सम्यगदृष्टि अनंत गुने अधिक है और उनसे भवसिद्धिक मिथ्यादृष्टि जीव अनंत गुने अधिक है ।
ह: मिथ्यात्वी का अंतरकाल औषत; मिथ्यादृष्टि जीवों का अंतरकाल नाना जीवों की अपेक्षा नहीं है, निरंतर है। ऐसा समय कभी भी नहीं आ सकता है कि मिथ्यादृष्टि कोई भी न रहे ।। जैसा कि षटडागम के टीकाकार आचार्य वीरसेन ने कहा है___ "ओघेण मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीव पहुच्चं णत्थि अंतरं, जिरंतरं ।'
---षट० खं १, ६ । सू २ । पु० ५ । पृ० ४ एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि का अंतरकाल जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक है ।' एक मिथ्यादृष्टि जीव–परिणामों के
(१) पण्णवणा पद १८ । सू १३४३
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