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[ २१ ] जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियंखेत्त पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो।
षटखंडागम० १, ४, ७४। पु ४। पु. १२८ अर्थात् योगमार्गणा के अनुवाद से पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों ने लोक के असंख्यात भाग का स्पर्श किया है।
भव्य मागंणा के अनुवाद से भव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टियों ने सर्व लोक का स्पर्श किया है तथा अभव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टियों ने भी सर्वलोक का स्पर्श किया है। जैसे कि कहा है;
भवियाणवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिटिप्पडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥१६॥ अभवसिद्धिएहिं केवडियं खेत्त पोसिदं, सव्वलोगो ॥१६६।।
षट खंडागम, १, ४, १६५, १६६। पु ४। पृ १५१ अर्थात् भव्यसिद्धिक तथा अभवसिद्धिक मिथ्यादृष्टि जीवों ने सर्व लोक का स्पर्श किया है।
८: मिथ्यात्वी की स्थिति औषप्तः मिथ्यादृष्टि की स्थिति सर्व काल की है-स्थिति को अपेक्षा मिथ्यादृष्टि के तीन विभाग किये गये हैं -जैसा कि प्रज्ञापना सूत्र में कहा है -
मिच्छादिट्ठीणं भंते ! पुच्छा! गोयमा ! मिच्छादिठ्ठी तिविहे पन्नत्ते तंजहा-अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणाइए वा सपज्जवसिए २ सादीए वा सपज्जवसिए ३। तत्थणं जेसे सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्त, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सपिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं ।
प्रज्ञा० पद १८। सू १३४४ मलयगिरि टीका-(मिथ्यावृष्टिः) तत्र च कदाचनापि सम्यक्त्वं नावाप्स्यति सो अनाद्यपर्यवसितः, यस्त्व वाप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यस्तु सम्यक्त्वमासाद्य भूयोऽपि मिथ्यात्वं याति स सादिसपर्यवसितः स च जघन्येनान्तमुहूतं तदनन्तरं कस्यापि भूयः सम्यक्त्वा
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