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७ : मिथ्यात्वी और क्षेत्रावगाह . सामान्यता मिथ्यादृष्टियों का सर्वलोकक्षेत्र है । गति की अपेक्षा तिर्यचति में मिण्याइष्टि का क्षेत्र सर्वलोक प्रमाण क्षेत्र है, अन्य गतियों में लोक का असंख्यातवां भाग प्रमाण है।
ज्ञान की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि में-मत्तिअज्ञान-श्रुतिअज्ञान का क्षेत्र सर्वलोक में है तथा विभंग अज्ञान का लोक का असंख्यातवां भाग क्षेत्र है। ... दर्शन की अपेक्षा मिथ्यादृष्टिमें-अचशुदर्शन का क्षेत्र सर्व लोक में हैं तथा चक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन का क्षेत्र लोक के असंख्यता भाग मात्र है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने कहा"एकेन्द्रियाणां क्षेत्रं सर्वलोकः
___ तत्त्व. अ.१। सू८ अर्थात् मिथ्यादृष्टियों में एकेन्द्रियों का ही सर्व लोक क्षेत्र प्राप्त होता है ।
भव्य और अभव्य मार्गणा की अपेक्षा से प्रथम गुणस्थान वाले जीवों का सर्वलोक क्षेत्र है।
एकेन्द्रिय जीवों को बाद देकर बाकी के सर्व मिथ्यादृष्टि का क्षेत्र लोक के असंख्यात भाग मात्र है जिसमें मिथ्या दृष्टि मनुष्यों का क्षेत्र-समयक्षेत्र मात्र है।
लेश्या की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि में कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याओं का क्षेत्र सर्वलोकमें हैं परन्तु तेजो आदि शुभ लेश्याओं का क्षेत्र लोक के असंख्यात भाग मात्र है । यह ध्यान में रहना चाहिए कि तेजो-पदम-शुद्धलेशी मिथ्यादृष्टि जीवों ने भूत काल की अपेक्षा भी लोक के असंख्यातवे भाग का ही स्पर्शन किया है ।
कायायोग की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि ने सर्वलोक का स्पर्श किया है।'
औधिक मनोयोगी को साथ मिलाने से पांच मनोयोगी के भेद हो जाते हैं इसी प्रकार वचनयोगी के भी पांच भेद हो जाते हैं। षट खंडागम में आचार्य पुष्पदंत-भूतबलि ने कहा है - (१) कायाणुवादेण xxx केवडियं खेत्त पोसिदं, सव्वलोगो
षटखंडागम० १, ४, ६॥ पु ४। पृ० १२४
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