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[ १८ ] स्त्येव जीव इत्येवं सावधारणतयाऽभ्युपगमं कुर्वन काल एवैकः सर्वस्यास्य जगतःकारणम्, तथा स्वभाव एव नियतिरेव, पूर्वकृतमेव, पुरुषाकार एवेत्येवमपरनिरपेक्षतकान्तेन कालादीनां कारणस्वेनाश्रयणान्मिथ्यात्वम् ।
सूय० श्रु १ । अ १२ । गा१। टीका अर्थात् जो जीवाजीवादि के अस्तित्व को मानता है लेकिन उनके नित्यानित्यत्व तथा स्व-पर में तथा काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा आदि को निरपेक्ष कारण-एकांत भाव से मानता है एकांत भाव होने से वह मिथ्यादृष्टि क्रियावादी है।
अथवा एकांत भावसे क्रिया को मोक्ष का साधन मानता है अतः वह क्रियावादी है। कहा है
क्रियां ज्ञानादिरहितामेकामेव. स्वर्गापवर्गसाधनत्वेन वदितु शीलं येषां ते क्रियावादिनः।
-सूय० श्रु २ । अ २ । सू २५ । टीका कतिपय आचार्यों को यह मान्यता रही है कि अक्रियावाद में भव्य और अभव्य-दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टियों का समावेश हो जाता है इसके विपरोत क्रियावाद में केवल भव्य आत्माका ही ग्रहण होता है। उनमें कोई शुक्लपक्षी भी होते हैं क्योंकि वे उत्कृष्टतः देशोन अद्ध'पुद्गल परावर्तन के अंतर्गत ही सिद्धगति को प्राप्त करेंगे। ___ यदि आस्तिकवादी-क्रियावादी भी आरम्भ और परिग्रह में आसक्त हो जाता है तो सम्यक्त्व से पतित होकर नरक-निगोद में जा सकता है। कहा है
से किरियावाई xxx सम्मावाई xxx एवंछंदराग-मइ-निविढे यावि भवई। से भवई महिच्छे, जावउत्तरगामिए नेरइए सुक्कपक्खिए आगमेस्साणं सुलभबोहिए यावि भवइ ।
-दशाश्रुतस्कंध प । सू० १७ अर्थात् सम्यगदृष्टि क्रियावादी-यदि राज्य-विभव, परिवार आदि की महा इच्छा वाला और महा आरम्भ वाला हो जाता है तो वह महाआरम्भी
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