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( १४ ) स्थानांग सूत्र के दसवें स्थान में कहा है
दसविधे मिच्छत्ते पन्नत्त, तंजहा --अधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा, अमग्गे मग्गसण्णा, मग्गेउमग्गसण्णा, अजीवेसुजीवसण्णा, जीवेसु अजीवसन्ना, असाहुसु साहुसन्ना, साहुसु असाहुसण्णा, अमुत्ते सु मुत्तसण्णा, मुत्त सु अमुत्तसण्णा ।
--ठाण स्था०१.सू. ७४
अर्थात् मिथ्यात्व के दस प्रकार हैं ---धर्म में अधर्म संज्ञा, अधर्म में धर्मसंज्ञा मार्ग में कुमार्ग संज्ञा, कुमार्ग में मार्ग संज्ञा, जीव में अजीव संज्ञा, अजीव में जीव संशा, साघु में असाधु संज्ञा, असाधु में साधु संज्ञा, मुक्त में अमुक्त संज्ञा और अमुक्त में मुक्त संज्ञा का होना मिथ्यात्व है ।
प्रज्ञापना पद १८११३४४ में कहा है
मिच्छादिट्ठी तिविहे पन्नत्ते तंजहा-अणाइए अपज्जवसिए वा, अणाइए वा सपजवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए, तत्थणं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंताओ उस्सपिणिओसदिपणो कालतो खेत्ततो अवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं ।
टीका-मलयगिरि-अनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिस. पर्यवसितश्च, तत्र यः कदाचनापि सम्यक्त्वं नावाप्स्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः, यस्त्ववाप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यस्तु सम्यक्त्वमासाद्यभूयोऽपि मिथ्यात्वं याति स सादिसपर्यवसितः स च जघन्येनान्तमुहूर्त, तदनन्तरं कस्यापि भूयः सम्यक्त्वाप्तेः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तमेवानन्तं कालं द्विधा प्ररूपयति --कालतः क्षेत्रतश्च, तत्र कालतोऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसप्पिणीर्यावत् , क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्गल-परावर्त देशोनं ।
अर्थात् मिथ्यादृष्टि के तीन भेद होते हैं यथा- अनादि अपर्यव सितअभवसिद्धिक जीव, अनादिसपर्यवसित - भवसिद्धिक जीव; सादिसपर्यवसितप्रतिपाती सम्यगदृष्टि जीव । उनमें से अभवसिद्धिक जीव अनादि अनंत स्वभाव
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